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स्वर-प्रक्रिया

                             उदात्त और अनुदात्त शुद्ध और स्वतंत्र स्वर है। इन्हीं दोनों के मेल से स्वरित की उत्पत्ति होती है। इन सबके चिन्हों के आधार पर लक्षण निम्नलिखित प्रकार के है- उदात्तः- अपूर्वो अनुदात्तपूर्वो वा अतद्धितः उदात्तः। जिससे पूर्व कोई स्वर न हो, अथवा अनुदात्त पूर्व में हो, (स्वरित उत्तर में हो) एसा चिन्ह रहित अक्षर उदात्त होता है। -- अनुदात्त- अणोरेखयाअनुदात्तः ।    अक्षर के नीचे पड़ी रेखा से अनुदात्त स्वर का निर्देश किया जाता है। स्वरित- उर्ध्व रेखया स्वरितः । अक्षर के ऊपर खड़ी रेखा से स्वरित का निर्देश किया जाता है। उदात्तानुदात्तस्य   स्वरितः ।   प्रचय- स्वरितात् परो अतद्धित   एकयुति। स्वरित से परे जिस या जिन अक्षरो पर कोई चिन्ह न हो , उन्हें एकयुति अथवा प्रचय कहते है। स्वर शास्त्र में अक्षर शुद्ध स्वर वर्ण अथवा व्यंजन सहित स्वर का वाचन होता है। यद्यपि स्वर शास्त्र के अनुसार उदात्त ...

संस्कृत में अनुवाद

                               यह था छोटे छोटे वाक्यों का अनुवाद   ।मै पढ़ता हूँ   ।अहम् पठामि    ।मै खाता हूँ   । अहम् खादामि ।वह दौड़ता है । सः धावति   । घौड़ा दौड़ता है =   अश्वः धावति ।तुम पीते हो= त्वम् पिबसि।इस प्रकार छोटे वाक्यों का अनुवाद हमने सीखा। अब थोड़े बड़े वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद करेगें    । इसके लिये हमें कारक का प्रयोग भी करना पड़ेगा   । कारक में सात विभक्तियाँ होती है   , यह हम पहले पड़ चुके है   । प्रथमा   -    ने द्वितीया-   को तृतीया- से, द्वारा चतुर्थी-   के लिये पंचमी- से षष्ठी- का , की , के सप्तमी- में, पर संबोधन- हे, अरे इस प्रकार कारक का अर्थ प्रत्येक विभक्ति के अर्थ के अनुसार किया जायगा   ।   तथा काल का प्रयोग भी होगा, भुत , भविष्य , वर्तमान    जो भी हो – वाक्य हे- राम ने र...

संस्कॄत में अनुवाद

हिन्दी से संस्कॄत में अनुवाद करने के लिये तीनो काल , भूत, भविष्य, तथा वर्तमान , कालों के प्रत्यय , तीनों वचन , एक वचन , द्विवचन , तथा बहुवचन   कारक परिचय , विभक्तियाँ ,प्रथमा से लेकर सप्तमी तक सातों विभक्तियाँ , आदि….. कुछ प्राथमिक बातों का ज्ञान होना आवश्यक है। इन सारी बातों का ज्ञान होने के पश्चात हिन्दी से संस्कृत में अनुवाद करना सरल हो जाता है           मै जाता हूँ ।    अहम् गच्छामि   । वर्तमान काल   में धातु इस प्रकार चलाई जाती है                    एक वचन               द्विवचन           बहुवचन उत्तम पुरुष       गच्छामि               गच्छावः             गच्छ...

यास्क का आख्यातज सिद्धान्त

शब्दों का आख्यातज सिद्धान्त का अभिप्राय है कि क्या सभी शब्द धातुओं से बने है या स्वतः निष्पन्न होते है।यास्क इस मत के पोषक है कि सभी शब्द आख्यातज है , जिसे सिद्ध करने के लिए ही सम्पूर्ण निरुक्त की रचना हुई है ।सभी शब्द धातुज है, इस सिद्धान्त के प्रतिपादक है   वैयाकरणाचार्य   शाकटायण       । शाकटायण-     बहुत   अच्छे वैयाकरण है ।इनके सिद्धान्त के अनुसार ही उणादि सूत्रों की रचना हुई है ।जिसकी मूल भित्ति यही है कि सभी शब्दों की व्युत्पत्ति सम्भव है । “सर्वनामधातुजम्’   समस्त निरुक्तकार इस पक्ष में है,   जिसमें यास्काचार्य भी है । वे कहते है ‘नत्वेव न निर्ब्रुयात्’   । गार्ग्य-     प्राचीन वैयाकरण है । उनके सम्मत में कुछ शब्द धातुज है और कुछ रुठ़    ।जिनकी जढ़ में धातु को ढुढना अनावश्यक है ।इसी के साथ यह भी ध्यान रखना चाहिये कि शब्द में धातु ढुँढते समय उस शब्द का अर्थ धातु के संवादी होना चाहिये ।इनके मत से सहमति रखने वाले पाणिनी व पतण्जलि है ।पतण्जलि के अनुसार   उणादयो व्युत्पन्न...