सोम सूक्त
(१)सोमस्य धारा पवते नृचक्षस ऋतेण देवान्हवते दिवस्परि ब्रहस्पते रवथेना वि दिद्युते समुद्रासो न सवनानि दिव्यषु । पदपाठ- सोमस्य । धारा । पवते । नृचक्षस । ऋतेण । देवान् । हवते । दिवः । परि । ब्रहस्पते । रवथेन । वि । दिद्युते । समुद्रासो । न । सवनानि । दिव्यषु । अर्थ- इसके ऋषि श्री भारद्वाज वसु, छन्द जगति तथा देवता पवमान सोम है । मनुष्य जाति को देखनेवाले सोम की धारा बहती है । यह यज्ञ के द्वारा आश्रय के ऊपर (रहनेवाले ) देवताओं को बुलाता है । बृहस्पति की गर्जन से यह चमकता है ।(प्रातरादि) सवन (पृथ्वी ) को नदियों की तरह व्याप्त कर रहे है । व्याख्या- १ .रवथेना – छान्दसि दीर्घत्व २ हवते , पवते , दिव्यषु , विद्युते - तिड़्तिड़ इति सर्वानुदात्त । ३ बृहस्पते - वतस्यव्यादि गण की धातु अर्थात् दो उदात्त । ४ समुद्रास - वैदिक रुप ५ सवनानि