विष्णु सूक्त

विष्नु सूक्त
(१)विष्णोः  नु  कं   वीर्याणि     प्र वोचं , यः प्रार्थिवाणि  विममे रजांसि ।
        यो अस्कभायदुत्तरं   सद्यस्थं  विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः  ।
पदपाठ-  विष्णोः  । नु । कम् । वीर्याणि । प्र । वोचम् । यः । पार्थिवाणि ।  विममे । रजांसि । यः । अस्कभयात् । उततरम् । सद्यस्थ । विचक्रमाणः । त्रेधा । उरुगायस्य ।
अर्थ- अब मै उस विष्णु के वीर कर्मो को प्रस्थापित करुगाँ , जिसने पृथ्वी सम्बन्धी स्थानों को नाप लिया है । तथा तीन प्रकार से पाद न्यास करते हुवे विशाल गतिशील जिसने उर्ध्वस्थ सहनिवासस्थान को स्थिर कर दिया है ।
व्याख्या-(१) प्रवोचम्- तिड़्तिड़ इति सूत्रेण सर्वानुदात्तः भवति । मुख्यवाक्यस्य मुख्यक्रिया रुपं अस्ति, अतः उदात्तस्य लोपः भवति ।
विममे-सायण के अनुसार –निर्माण किया , अन्य विद्वानों के अनुसार नाप लिया (उध्वर,महीप)
पार्थिवाणि-पृथिव्या इमाणि , पृथिवी +अण् ।
(२)अस्कभायत्-  विममे- यद्वृत्तान्नित्यं इति सूत्रेण उदात्तस्य लोपः न अस्ति ।
(३)वीर्याणि – यह वाक्य संधिजन्य नही है , अपितु जात्य स्वरित है ।
(४) कम्- पादपूरण के लिये एक निपात् ।
(५) त्रेधा  का छन्दोनुसार  त्रयेधा होगा ।
(६)उरुगाय- सायण महोदय ने इसका अर्थ विशाल गतिवाले अथवा बहुतों द्वारा स्तूयमान , इस प्रकार किया है । पीटर्सन ने इसका अर्थ ‘दूरगन्ता’ भी किया है ।मैक्डानल –विस्तृत पदवाला , विष्णु के तीन कदम , सूर्य के संक्रमण काल में उदय होना , मध्य में जाना तथा अस्त होना , ये ही विष्णु के तीन कदम है । विशाल पदक्रम वाले यास्क ने प्रतिपातिद किया है ।
(७) सधस्थम्- मैक्डानल- द्युलोक , सायण –अतिविस्तॄत  अन्तरिक्ष (जातलोक सत्यलोक) ।
(२) प्र  तद्विष्णु;  स्तवते   वीर्येण ,  मृगो  न  भीमः   कुचरो  गिरिष्ठा ।
      यस्योरुषु   त्रिषु  विक्रमणे ष्वधिक्षियन्ति    भुवनानि   विश्वा ।
पदपाठ- प्र। तत् ।  विष्णुः । स्तवते । वीर्येण । मृगः । न । भीमः । कुचर ; । गिरिस्था । यस्य; ।        उरुषु । त्रिषु । विक्रमणेषु  । अधिक्षियन्ति । भुवनानि । विश्वा ।
अर्थ- विष्णु  जिसके विशाल तीन कदमों में सम्पूर्ण प्राणी निवास करते है , अपने उन वीरतायुक्त कार्य के कारण स्तुति किया जाता है , जिस प्रकार पर्वत पर रहने वाला तथा अपनी इच्छानुकुल विचरण करने वाला भयानक पशु ।
    व्याख्या-   (१) वीर्येण – यह जात्य स्वरित है । एतद् जात्यस्वरितः अस्ति, न तु संधिजन्यः ।
                   (२) स्तवते- तिड़्तिड़ ; इति सूत्रेण सर्वानुदात्त; भवति ।
                   (३) मृगः-  विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न अर्थ किये है । मृग-्सिंह (सायण) प्रारंभ में सभी जानवरों के लिये प्रयुक्त , परन्तु बाद में मृग का अर्थ हिरण से ही रुढ़ हुवा  । मृग-्बैल (यास्क)  ।
                    (४) तत् पद को लिंग व्यत्यय से पुर्लिंग सः मानना चाहिये  और यह विष्णु का विशेषण है ।
                     (५) प्र इस उपसर्ग का स्तवते क्रिया के साथ अन्वय है ।
                (६) स्तवते- स्तु धातु से कर्म में प्रत्यय करने पर यक् के स्थान में व्यत्यय से शप् हुवा
                      वीर्येण- वीरियेण ।
                वीर्येण –ग्रासमेन- वीर्य- सामर्थ्य , लुडविच- अपनी बल शक्ति के कारण विष्णु प्रशंसित होता है , ऐसा मानते है ।
               (७) गिरिष्ठा- गिरि+स्था   क्विप  या विच्  ।
              (८)मृग – मार्ष्टि    गच्छति इति मृगः
               (९)प्रतद् विष्णु- इस पद में तत् पद का अर्थ सायण ने स्पष्ट नही किया है । स्तवते का अर्थ स्तुयते माना है ।पीटर्सन को यह नापसन्द है , किन्तु पीटर्सन का यह अर्थ अयुक्त है क्योकि ‘स्तवते’ का अर्थ कर्म प्रत्यय मे ही करना चाहिये । किन्तु स्वयं अपने कर्मो की प्रशंसा करता है , यह अर्थ अस्वाभाविक है । वीर्येण को भी पीटर्सन ने शक्ति इस अर्थ में प्रयुक्त मानकर क्रियाविशेषण  माना है । ग्रासमन ने प्रस्तवते का अर्थ तत् को माना तथा वीर्येण का अर्थ भी शक्ति किया है ।
              (१०) अधिक्षियन्ति – अपादादौ  इति सूत्रेण सिद्धः
              (११) विश्वा – आभि का वैकल्पिक रुप आकारं ।
              (१२) कुचरः – दुर्गम प्रदेशयन्ता , हिंसादि कुत्सित कर्म करने वाला ।
             (१३) गिरिष्ठा- पर्वताश्रित  वाणी ।
             (१४)वेद में भुवन का अर्थ प्राणी होता है, सायण ने भूतजातानि प्रयोग किया है ।
(३)     प्र विष्णवे  शूषमेतु  मन्म    गिरिक्षित  उरुगायाय   वृष्ने  ।
          य  इदम्  दीर्घ  प्रयेत्  सधस्थमेको   विममे  त्रिभिरित्पदेभिः ।
पदपाठ-   प्र । विष्णवे । शूषम् । एतु ।  मन्म ।  गिरिक्षित ।  उरुगायाय । वृष्ण । य । इदम् । दीर्घम् । प्रयतम् । सधस्तम् ।  एकः । विममे । त्रिभि ; । इत् । पदेभिः ।
   अर्थ-    (मेरी) शक्तिशाली प्रार्थना , ऊँचे लोको में निवास करने वाले , विशाल कदमों वाले  इच्छाओं की पुर्ति करने वाले , विष्णु के पास जावें , जिसने इस बड़े अतिविस्तृत (पवित्रात्माओं) के मिलन स्थान को अकेले तीन पदों से नापा था ।
व्याख्या-    (१)शूषम्-  बल , बलप्रद , मैक्डानल – उत्साहवर्धक अर्थ लेता है । राँथ  महोदय सायण का अर्थ अर्थ के लिये नही मानता , यह सायण को कर्मकाण्डी अर्थ का द्योतक समझता है
              (२) शूषम् की सिद्धि  राँथ ने ‘श्वस्’ धातु से मानी है । तथा इसे विशेषण भी माना है
              (३)प्रबल प्रतिपक्षी को देखकर शत्रु का बल सुख जाता है  इसलिये बल का नाम ‘शूष्’
              (४) शूष् धातु से घण् प्रत्यय करने पर ‘शूष्’ शब्द की सिद्धी होती है । शूषम् मन्म का विशेषण है ।
                (५) मन्म- मन्त्र, मनन , स्रोत  ।
                (६) विममे- उदात्त का लोप नही , पाद के प्रारम्भ में है ,  यद्वृतान्तनित्यं  ।
                (७)पदेभि;-    अवग्रह से अलग नही दिखाया ।
                (प्रयतम्-   दीर्घ,   विशाल  , नियत   (सायण)  ।
                 (८) वृष्ण-   वर्धनशील  कामानल   (विष्णु) ‘वृषण’  शब्द यद्यपि अनेको बार प्रयुक्त है  तथापि स्पष्ट नही है । तथा यह शब्द  वीर्य सेवता या बलवान अर्थ में प्रयुक्त होता है । धीरे धीरे यह अर्थ परिवर्तित होता गया ।
                    (९) गिरिक्षिते-  उन्नत प्रदेशों में , वाणी मे निवास करता है ।
                    (१०) क्षिति -  पृथ्वी , निवास के अर्थ में , अग्नि वैदिक दैवताओं में पुजक , उनके बीच में स्थायी , भावी नही , दास्य भाव नही , विष्णु वरुण से डरते है , रुद्र से डरते है । हविष्यान्न  कौन दे रहा है । परस्पकम् भावयन्तः  ।
(४)  यस्य त्री पूर्णा  मधुना  पदान्य  अक्षीयमाना  स्वधया मदन्ति ।
      य  उ त्रिधातु  पृथिवीमुत   द्याम् एको  दाधार  भुवनानि  विश्वा ।
पदपाठ -  यस्य । त्री । पूर्णा । मधुना । प्रदानि । अक्षीयमाना । स्वधया । मदन्ति । यः । हूँ इति ।
              त्रिधातु । पृथिवीम् । उत् । द्याम् । एकः । दाधार ; । भुवनानि । विश्वा ।
व्याख्या-  (१) स्वधया – मैकडानल -   स्वधा इति अन्ननाम् (अन्न से प्रसन्न ) राँथ का मत है भारत  वैदिक स्वधा शब्द का पूर्णतया विस्तृत कर चूका है , उनके मत में रितिरिवाज , विधि, नियम , व्यवस्था ।
           (२) अक्षीयमाना- अ+क्षी+शानच्  । छन्दोगति की दृष्टि से पदानि  अक्षीयमाना  पठितव्य  है ।
            (३) मदन्ति-  मादयन्ति     (प्रेरणार्थक )   लेना है ।
             (४) स्वधा-  पितरों के लिये की जाती है । 
             (५) स्वाहा – अच्छे अर्थ में दी जाती है ।
            (६)  स्वधा – विभिन्न संदर्भों में विभिन्न अर्थ है , कुछ विद्वान इसका अर्थ स्वतन्त्रता करते है , सायण तथा मैक्डानल इसका अन्न ही करते है  । राँथ ने इसका अर्थ  स्वीट ड्रिन्क   किया है । प्रोफेसर  राँथ के अनुसार भारतीय परम्परा वैदों के अर्थ जानने में सहायक नही ।
                (७) भुवन् का अर्थ  सायण ने लोक किया है , परन्तु प्राणी अर्थ ज्यादा उपयुक्त है ।
                (८) दाधार – केवल वैदिक रुप । अभ्यास में दीर्घ का ह्रस्व होता है , लैकिन यहाँ नही हुवा , ‘दीर्घोभ्यासस्य”  सूत्र से ।
(५)  तदस्य प्रियमपि  पाथो अस्मां  नरो यत्र देवयवो मदन्ति ।
        उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था , विष्णोः प्रदे परमे मध्व  उत्स ।
पदपाठ- तत् । अस्य । प्रियम् । अभि । पाथ ; । अस्याम् । नरः  । यत्र । देवयव ; । मदन्तिः ।      उरुक्रमस्य ।  स; । हि । बन्धुः  । विष्णो । पदे । परमे । मध्यः । उत्सः ।
अर्थ   -   इस विष्णु के उस प्रिय लोक को मै प्राप्त करुँ जहाँ पर देवताओं के इच्छुक मनुष्य
             आनन्द करते है । विशाल गतिवाले विष्णु के श्रेष्ठ लोक में मधु का एक सरोवर है । इस         
              प्रकार निश्चित ही वह (सबका) मित्र है ।
व्याख्या- पाथ; - ब्रह्म लोक को (सायण)
               यास्क-  पाथो अन्तरिक्षं  पथा व्याख्यातम् । उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था –सायण
              उरुक्रम विष्णु के परम पद में मधु का उत्स है , इस प्रकार वह सबका बन्धु है ।
              पीटर्सन  -यहाँ उरुक्रम विष्णु देव का साहचर्य है , विष्णु के परम पद में मधु का
               उत्स है । मैक्डानल  बन्धु को उत्स के लिये प्रयुक्त मानते है ।
                           उरुक्रमस्य  स हि  बन्धुरित्था –सायण स हि बन्धुरित्था इस प्रकार यह
                 विष्णु निश्चित ही सबका बन्धु है , अर्थ कर इसे निक्षिप्त वाक्य के रुप में पस्तुत
                करते है । ग्रासमन- यहाँ माधुर्य निर्झर है । इस प्रकार राँथ बन्धु को स्वर्ग समान
                 तथा ‘नरो देवयव;’ की समुदायपरक अभिव्यक्ति भी करते है ।
                इत्था- पिशेल अत्र से एत्थ को व्युत्पन्न कर एत्थ और इत्था को समान मानते है । 
(६)      ता वां वास्तुन्युष्मति गमध्यै  यत्र  गावो  भूरिश्रवा अयासं  ।
           अत्राह तदुरुगावस्य  वृष्ण; , परमं  पदमव  भाति भूरिं ।
पदपाठ- ता । वाम् । वास्तूनि । उश्मसि । गमध्यै । यत्र । गाव; । भूरिश्रवा । अयासः । अत्र । अह । तत् । उरुगायस्य । वृष्ण; । परमम् । पदम् । अव । भाति । भूरि ।
अर्थ – तुम दौनों को उन स्थानों पर जाने के लिये मै इच्छा करता हूँ । जहाँ पर बहुत सींग वाली ( अत्यधिक प्रकाशवाली) हमेशा गतिशील रहनेवाली गायें (किरणें) है । यही पर विशाल गतिवाले इच्छाओं की पूर्ति करने वाले (विष्णु) का उस प्रकार का परमधाम  नीचे (हमारी तरफ)  अत्यधिक रुप से प्रकाशित हो रहा है ।
व्याख्या- ता वां  - पत्नि , यजमान की बात है , दो दैवता की नही । मैक्डानल – किसी सहचर दैवता , इन्द्र और विष्णु  , का साथ है । मित्रावरुण भी ।
           गाव; - सूर्य की किरणें , सूर्य-रश्मि (सायण) यास्क भी यही अर्थ करते है ।
           उश्मति -  तिड़ तिड़ इति सूत्रेण सर्वानुदात्तः भवति ।
           अयास; - सायण के अनुसार अय शब्द है , अयास; वैकल्पिक रुप है । मैक्डानल के
          अनुसार यह अकारान्त नही है , सकारान्त है , अया मूलरुप है । अन्यत्र भी अयासौ ,
           अयासं रुप मिलते है ।अव भाति अयास;         यद् वृतान्त नित्यं  इति नियात;  ।
                      प्रस्तुत मंत्र तथा पूर्ववर्ती मंत्रों में लोकान्तर गमन की मान्यता का प्राचीनतम
          बीज माना जा सकता है , और इन मंत्रों को भक्त विद्वानों ने भक्तिकालीन बैकुण्ठधाम 
          गमन की मान्यता का भी आधार माना है ।
       गमध्यै – गम् से तुमर्थ में अध्यै प्रत्यय ।
          गावो भूरिश्रवा – सायण के अनुसार अत्युन्नत सर्वाश्रयणीय किरणें । पीटर्सन – संभवत;
          अगणित  किरणयुक्त तारे । मै. के मतानुसार संभवत; सायण का अर्थ संगत है , उषस्
          रश्मियाँ गायों के साथ तुलित हुई है तथा प्रकाश लोक विष्णु के तृतीय पाद के अनुरुप सूर्य प्रकाश सम्बन्ध पदार्थ ही उपयुक्त है । मै. राँथ पर आधृत पीटर्सन के मत को आधारहीन कहते है ।
            अयास; - सायण- गमनशील , गतिमति , अतिविस्तृत  तथा गतिरहित परम प्रकाश युक्त ।

 राँथ- इसे अ+यास से निष्पन्न करते है । उनके अनुसार इसका अर्थ है – द्रुतगति , तीव्र, सक्रिय , तेज, चुस्त, चालाक, हल्का, विशारद, प्रवीण , दक्ष, विज्ञ, निपुण । 

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