भवभूति की कला




      भवभूति एक महान नाटककार हुए । सर्वसम्मति से उत्तररामचरित भवभूति की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है  । ऐसा प्रतीत होता है कि इस अंतिम नाटक में उन्होंने अपनी पहले की असफलताओं से पाठ ग्रहण किया है  तथा कला के उद्धेश्य को भलिभाँति समझा है ।किसी भी रचना का महत्व उसके अलंकार सौष्ठव तथा साहित्यिक आडम्बर की अपेक्षा उसमें निहित मानव स्वभाव तथा जीवन की व्याख्या के स्वरुप में ही है । धार्मिक विधानों से जकड़े हुवे तथा पूर्णरुप से पुरुषों के अधिकृत समाज में स्त्री का स्थान स्वभावत; गौण होता है  । वास्तव में वह दासी ही थी और अधिक से अधिक उसका गौरव आदर्श गृहिणी के रुप में था , ऐसी गृहिणी जो अपने ‘निर्माणभाग ‘ से संतुष्ट हो , पति का किसी भी अवस्था में विरोध न करें तथा सपत्नियों को भी सखी भाव से देखे – ऐसे वातावरण में प्रेम –पुष्प यथार्थत; कभी विकसित नही हो सकता । स्वयंवर तथा गांधर्व विवाह पद्धति का भी उल्लेख मिलता है परन्तु इनके अनुकुल आचरण नियम के अपवाद के रुप में ही था । बहुविवाहजन्य नैतिकता के प्रभाव के कारण दाम्पत्य प्रेम जीवन में तो दुर्लभ सा ही था और केवल कवि की कल्पना के आदर्श के रुप में ही स्थित था । ‘’इस पृष्ठभूमि में यह ध्यान देने योग्य बात है कि भवभूति के नायक एकपत्निव्रती है  तथा उनके लिये प्रेम सर्वग्राही भावना है ‘’ ।उत्तररामचरित की कथा के चरित्रों को वास्तविक मानव रुप देकर तथा उनके भावों की गंभीरता तथा अगाधता का चित्रण करकें भवभूति ने यह दिखाया है कि राम और सीता के समान ह्रदय की भाषा को जानने वाले दम्पत्ति के जीवन में प्रथम प्रेम का उल्लास चिरस्थायी तथा चिरनूतन हो सकता है –जब पति पत्नि की छोटी छोटी आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुवे तथा प्रेमी ही बना रहता है –जैसे राम सीता के उपधान के लिये अनन्याश्रित अपने बाहु को ही उपस्थित करते है , और जब स्नेहशीला तथा सहानुभूतिशीला पत्नि को पति के स्थिर प्रसाद में दृढ़ विश्वास है । विरह भी ऐसे प्रेम के बंधन को तोड़ नही सकता तथा विपत्तियाँ भी उसके उच्छवास को कुचल नही सकती ।
                 भवभूति ने इस नाटक की रचना गम्भीर चिन्तन के पश्चात ही की होगी । इसके पीछे कला की तात्विक धारणा की प्रेरणा स्पष्ट परिलक्षित होती है । दूसरे अंक में वर्णित महर्षि वाल्मिकी के शब्द –ब्रह्म –प्रकाश की घटना से नाटक की रचना के समय की भवभूति की अपनी मनस्थिति भी लक्षित होती है  । वे नान्दी के द्वारा इष्टदेव की कृपा तथा दश्किगणों की शुभेच्छा प्राप्त करने की प्रचलित प्रथा को नही अपनाते । इसके स्थान पर वे पूर्व कवियों को प्रणाम करते है तथा दैवी वाक् का आव्हान करते है – इसी से क्या उनकी मनस्थिति की सूचना नही मिलती है ? भवभूति के सामने केवल कथावस्तु का निर्वाचन करके उसे आवश्यक परिवर्तनों के साथ नाटकीय रुप में प्रस्तुत करने की ही समस्या नही थी पर उसे एक प्रभावपूर्ण  सुबद्ध रचना का रुप देने के लिये एक प्रमुख नाटकीय समस्या के स्वरुप का निर्धारण करके उसी के अनुरुप कथा –विकास की समग्र रुपरेखा में अवसर के अनुकूल रंग भी भरने थे । नाटक की घटनाएँ परस्पर सम्बद्ध है तथा मुख्य कथाबिन्दु के विकास में पूर्णरुप से सहायक सिद्ध हुई है ।
                 कथावस्तु को प्रस्तुत करने में भवभूति ने मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया है  । नाट्यशास्त्र में वर्णित रस की उपलब्धि के लिये ही वे नाटक की घटनाओं में ही शारीरिक व्यापार की अपेक्षा भाववर्णन की ओर अधिक सचेत है ऐसा नही है ‘’वास्तव मे तो वे जिस कथानक को ले रहे है उसमें मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण की प्रधानता अनिवार्य तथा उपयुक्त ही है ।‘’इस नाटक की एक विशेषता लम्बे स्वगत भाषणों का प्रयोग है जो अन्य संस्कृत नाटकों में विरल ही है । प्रथम अंक में निर्वासन के भयावह निर्णय के अवसर पर तथा द्वितीय अंक में जनस्थान में पूर्व घटनाओं के स्मरण के अवसर पर हुवे राम के स्वगत भाषण गंभीर मनौवेज्ञानिक तथ्यों का उद् घाटन करते है । उनका नाटकीय मूल्य चाहे सबको स्वीकार न हो पर पात्र के चरित्र के उद् घाटन में उनकी महत्ता के विषय में कोई संदेह नही है । यह पद्धति शेक्सपियर की ट्रेजेडियो में प्रयुक्त स्वगतभाषण के बहुत निकट है और इसीलिये यदि किसी का यह आक्षेप है कि नाटक में यथार्थतः कुछ होता नही है तो उसे नाटक में वर्णित मानसिक परिवर्तन तथा भावोद्वेलन के ह्रदयस्पर्शी दृश्यों को ही देखना चाहिये । और यह भी निर्विवाद है कि इस मनोवैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग के बिना नाटक में विसंगतिहीन पुनर्मिलन की प्राप्ति तथा विशेष रुप से स्त्री के प्रति उचित न्याय भावना को उपन्यस्त करना असम्भव ही होता ।
               उनके अन्य दो नाटको की अपेक्षा उत्तररामचरित में नाटक की शिल्पविधि –तकनीक –तथा वस्तुग्रथन में अधिक कुशलता बर्ती गई है  । प्रथम अंक में प्रस्तावना से लेकर निर्वासन तक संवाद चित्रदर्शन की घटना आदि में भावी कथानक के दृढ़ आधार का निर्माण हुवा है तथा इसमें घटनाओं का विकासक्रम स्वाभाविक बन पड़ा है  । दूसरे अंक में भी संवाद के प्रवाह में बारह वर्ष के लम्बे कालान्तर की घटनाओं का सम्बन्ध सूत्र स्वाभाविक रुप से कथाप्रसंग में जोड़ दिया गया है , विशेषकर प्रकृति दृष्टव्य परिवर्तनों के वर्णन में तो प्रकृति के साथ साथ मानव पात्रो की शारीरिक तथा मानसिक परिस्थिति की भी सूचना मिलती है  । प्रकृति के परिवर्तनों से लम्बी अवधि के बीत जाने की जो प्रतीति होती है वह ऐसी अनजाने में तथा स्वाभाविक रुप में होती है कि उनके ग्रथन के पीछे काम करने वाले सावधान कलासंधान की उपस्थिति का भान बिना विश्लेषण के होना कठिन ही है  । विष्कम्भकों का प्रयोग भवभूति ने निराले ही ढंग से किया है  । पारिभाषिक अर्थ में भुत तथा भविष्य की आवश्यक घटनाओं से अवगत कराने के लिये इनके प्रयोग में विशेष कुशलता अपेक्षित नही है  । पर इन्हें नाटकीय सूचना के लिये तथा भाव परिणाम के संतुलन के लिये प्रस्तुत करने में रचना कौशल की पकड़ अत्यावश्यक है ।
                        नाटक में अतिलौकिक  तत्वों के प्रयोग में भी भवभूति की नुपुणता दृष्टव्य है ।पौराणिक  गाथाओं के पात्र प्राचीनकाल से ही देवरुप में पूजे जाते रहे है और कलाकार के लिये नाटक में उनकों उनके इस देवत्व से पृथक करना असंभव सा ही है और कदाचित उन्हें साधारण मानव के रुप में प्रस्तुत करना उपहासास्पद भी होता है  । इसीलिये उत्तररामचरित में राम, सीता , वाल्मीकि तथा अरुन्धती आदि में देवत्व का कुछ अंश है , अन्य देवत्वपूर्ण पात्रों का की स्थानों पर उल्लेख हुवा है , अर्धदेवता विद्याधर दम्पती तो रंगमंच पर ही आते है तथा अन्त में गर्भनाटक भी दैवी विभूतियों द्वारा भरतमुनि के निर्देशन में खेला जाता है  पर भवभूति ने इन पात्रों के देवत्व के रंग को बहुत कुछ हल्का कर दिया है  । अधिकतर तो उन्हें परदे के पीछे ही रखा गया है , जहाँ वे मंच पर आते भी है वहाँ उनका अतिलौकिक रुप  प्रच्छन्न है । राम और सीता अपने पौराणिक रुप में होने पर भी अपने भावपूर्ण मानवोचित दाम्पत्य स्नेह से ही हमें प्रभावित करते है । नदियाँ तो मानवी ही प्रतीत होती है तथा उनके मूलस्त्रोत का पता तो सूचना से ही मिलता है  । यहाँ यह स्मरणीय है कि अतिलौकिक तत्वों का प्रयोग अधिकतर दृश्यों में प्रसंगवशात् ही हुवा है  । वे नाटक के विकास में अनिवार्य नही है , जब ऐसे तत्व नाटक के कथाविकास के अंगभूत रुप में प्रयुक्त होते है तभी वे वस्तुविधान के दोष को द्योतित करते है । यहाँ भवभूति ने इन तत्वों का आनुषंगिक रुप में प्रयोग करते हुवे इन्हें स्वाभाविक बना दिया है ।                    इससे भी अधिक वस्तुविधान की कुशलता का परिचय उनके नाटकीय सोत्प्रास (पताका स्थानक )के यथोचित प्रयोग में मिलता है  । पुरे नाटक में इनका साभिप्राय तथा सुन्दर प्रयोग हुवा है  । (पहला अंक लक्ष्मण के द्वारा अग्निपरीक्षा का उल्लेख तथा राम की प्रतिक्रिया , सीता को राम का यह आश्वासन कि यह तो चित्र है , वियोग का भय मत करो , भावी वियोग के आगमन के अवसर पर पुरानी घटनाओं की स्मृति , दुर्मुख का वचन , राम से पंचवटी में चलने का अनुरोध तथा उनके द्वारा सीता को कठिनह्रदया होने का उपालम्भ और तृतीय अंक में सीता की छायारुप में उपस्थिति से दु;खपूर्ण व्यंग्य की सूचना ।)
      दोष ;-
              उत्तररामचरित  के दोष सतह पर ही है  जिनके लिये गतिपूर्ण शारीरिक क्रिया तथा घटनाओं का शीघ्र घात प्रतिघात ही नाटक के आवश्यक तत्व है  उन्हैं इस नाटक की काव्य रचना तथा गंभीर भावव्यंजना  रिझा न सकेगी । इन बाद के तत्वों से कदाचित इसे महान काव्यकृति कहा जा सकता है  पर यह भी लगता है कि नाटक के रुप में उत्तररामचरित ऊँचे स्तर पर नही पहुँच पाता है । वैसे प्रथम अंक में दुखावह व्यंग्य , तृतीय अंक में सीता के द्वारा शनै शनै किये गये आत्मसमर्पण का वर्णन , लवकुश के व्यक्तित्व का वर्णन तथा गर्भनाटक की रचना इत्यादि प्रसंगों की रचना में इनके कलाकौशल की अत्यधिक प्रशंसा हुई है ।
          इनके कविरुप की सफलता ही इनकी नाट्यरचना की दुर्बलता है । नाटक रचना के लिये अत्यावश्यक है कथा के प्रति निर्विकार भाव , पर भवभूति का दृष्टिकोण कविकलाकार का है और इसके फलस्वरुप वे कभी कभी भावावेग में बह जाते है तथा मुख्य उद्देश्य को भूल जाते है – यह दृष्टिकोण ही उनके नाटक की कमियों के लिये उत्तरदायी है  । उन्होंने कथा के विकास को गतिमान घटनाक्रम की अपेक्षा भावव्यंजक चित्रपरम्परा के रुप में प्रस्तुत करना अधिक उचित समझा । वे भाववर्णन में ऐसे डुब जाते है कि प्राय; कथा का भावसंवेदन का माध्यम मात्र रह जाता है , वह प्राणवान व्यक्तित्वपूर्ण चरित्र नही रहता 
            वास्तविक चरित्र निरुपण की कमी ही इस नाटक का प्रमुख दोष है  । कभी कभी इनका भावावेग आत्मा की गहराई को मथ देता है  पर कभी कभी उसकी अति हो जाती है  वहाँ स्वाभाविक भावचित्रण भी काव्यत्वपूर्ण आडम्बर मात्र रह जाता है । पद सौष्ठव के प्रति झुकाव , जिससे कोई कवि अछूता नही रह सकता , उन्हें भाषा के ऐसे प्रदर्शन के लिये प्रेरित करता है जो उनकी कृति के नाटकीय रुप को ध्वस्त कर देता है ।
              यह ठीक है कि उत्तररामचरित में इन दोषों का परिहार करने का प्रयत्न हुवा है  पर फिर भी ये अपना स्वरुप प्रकट किये बिना नही रहते ।नाटक का तर्क सम्मत  रुपविधान  काव्यत्वपूर्ण तथा भावपूर्ण दृष्टिकोण के कारण स्पष्टतया लक्षित नही होता है  । कोई सह्रदय समालोचक सावधान विश्लेषण के पश्चात ही उसकी रुपरेखा को समझा सकता है  । राम का भावावेग गंभीर तथा ह्रदय की गहराईयों से उठा हुवा है , पर आसूँ तथा मूर्च्छा की अधिकता निरन्तर शोकशल्य तथा मर्मच्छेदन का उल्लेख यदि खटकता नही है  तो भी अस्वाभाविक तो लगता ही है  । राम, सीता , वासन्ती तथा लव के अतिरिक्त नाटक में वास्तविक चरित्र चीत्रण दुर्लभ ही है  । भाषा प्रशंसा है पर वास्तविक संवाद कही कही पर दिखता है तथा सीता के संवादों में भाषा चमत्कार का प्रयास तथा छठे अंक के विष्कम्भक  युद्ध वर्णन के प्रतिकुल ही है ।
               शैली   - 
                       भाषा का गौरव  तथा शब्द चमत्कार  भावानुरुप  भाषा का प्रयोग , शब्द भंडार की समृद्धता , भाव के अनुकुल छंदों का प्रयोग , करुण रस के लिये शिखरिणी की उपयुक्तता -  ‘’भवभूतेर्शिखरिणी निरगलितरंगिणी रुचिराघनसंदर्भे  मयुरीव नृत्यति ‘’
       इस प्रकार कला की दृष्टि से भवभूति सर्वश्रेष्ठ रचनाकार माने जाते है  । सम्पूर्ण संस्कृत जगत वे एक सफल एवं परिष्कृत नाटककार है ।



Bhavabhuti was a great playwright. It is considered unanimously the best creation of Uttara-rām bhavabhuti. In this final play it seems that he has read from his earlier failures and has understood the purpose of art well. The importance of any composition is more than its ornamentation and literary fervor in explaining human nature and life. It is in the form itself. The place of the woman in the authorized society of men, fully clothed with religious laws and completely; Is secondary. In fact, she was a maid and more and more her pride was as an ideal housewife, such a housewife who is satisfied with her 'nirmanabha', do not oppose the husband at any stage and look at the sapthons also in a happy manner - such an environment In love-flow realistically; Can never grow Swayamvar and Gandharva marriage methods are also mentioned, but their favorable conduct was only as an exception to the rule. Due to the influence of polygamous morality, married love was rare in life and was situated only as the ideal of the poet's imagination. "It is worth noting in this backdrop that the protagonist of Bhavabhuti is monogamous and love is an all-encompassing feeling for him" Has shown that in the life of a couple who knows the heart language like Rama and Sita, the euphoria of first love can be everlasting and everlasting - while the husband takes care of the little needs of the wife and remains the lover - just as Ram Sita For the sake of the provision of the dependent, present his arm only, and when the affectionate and sympathetic wife has strong faith in the husband's steady offerings. Virah too cannot break the bond of such love and plagues cannot crush her sorrow.
Bhavabhuti would have composed this drama only after serious thinking. The motivation of the elemental concept of art is clearly reflected behind it. The incident of Maharishi Valmiki described in the second issue - Brahm - Prakash also targets his own state of mind at the time of composing the play. They do not follow the custom of getting the grace of the presiding deity through Nandi and receiving the good wishes of the dashing people. Instead, they salute the former poets and invoke the divine speech - from this, is not their state of mind informed? Bhavabhuti had not only the problem of electing the plot in a dramatic way with the necessary changes, but to give it the form of an effective well-composed composition, by determining the nature of a major dramatic problem, the story was developed accordingly. Colors suited to the occasion were also to be filled in the overall outline. The events of the play are interrelated and have proved to be fully helpful in the development of the main storyline.
Bhavabhuti has adopted a psychological approach in presenting the narrative. For the achievement of the rasa described in the Natyasastra, he is more conscious of the sentiment than physical trade in the events of the play itself. It is not so. "In fact, the preponderance of the psychological approach is essential and appropriate in the plot that he is taking. . ”One of the features of this play is the use of long welcome speeches which are rare in other Sanskrit plays. In the first issue, on the occasion of the terrible decision of exile, and in the second issue, on the occasion of the remembrance of past events in Janasthana, the speech of Huve Ram reveals serious psychological facts. His dramatic value may not be accepted by all, but there is no doubt about his importance in the inauguration of the character. This method is very close to the autobiography used in Shakespeare's Tragedio and, therefore, if one objections that nothing really happens in the play, then one should only look at the mental changes and heart-rending scenes described in the play. And it is also undisputed that without the use of this psychological method, it would have been impossible to achieve an unsympathetic reunion in the play and to appropriate a sense of justice towards the woman in particular.
The skill of the play - technical - and the content in Uttararamrit has been shown to be more efficient than his other two dramas. In the first issue, from the prologue to the exile, the events of the dialogue pictures, etc., have formed the firm foundation of the future plot and the development of the events has become natural in it. In the second issue also, in the flow of dialogue, the relation of the events of a long period of twelve years has been naturally added to the Kathaprasang, especially in the description of the changes in the nature of visions, but also information about the physical and mental condition of human characters along with nature. Is found. The realization of the passage of a long period from the changes in nature is so unintentional and natural that it is difficult to be aware of the presence of careful artisans working behind their speech. The Bhavabhuti has used the explosives in a unique way. In the technical sense, special skill is not required in their use to make them aware of the future and necessary events. But in presenting them for dramatic information and for balancing the result, the skill of composition skill is essential.

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