योग एक दैवीय शक्ति
योग से तात्पर्य आध्यात्मिक सुख प्राप्त
करने से नही है ।योग एक क्रिया है । विभिन्न आसनों के द्वारा योग करने से शरीर स्वस्थ
और तंदुरुस्त रहता है । सुबह ब्रह्म मुहुर्त में ही योग की क्रिया की जाती है , क्योंकि
ब्रह्म मुहुर्त में किया हुवा योग मन और शरीर दोनों को स्वस्थ रखता है ।योग करने से
आपका शरीर तो स्वस्थ रहता ही है साथ ही आपका मन भी प्रसन्न रहता है । योग सिर्फ विभिन्न
आसन ही नही बल्कि मन पर नियंत्रण करना भी सिखाता है । यदि मन पर नियंत्रण कर लिया तो
कई समस्याओं से बचा जा सकता है , कई रोगों से दूर रहा जा सकता है ।जीवन की समस्याओं
का हल भी योग में छुपा हुवा है ।
मनुष्य को आध्यात्मिक उन्नति के लिये मन और
इन्द्रियों का निग्रह करना आवश्यक है ।योग की महिमा अनेक उपनिषदों में गाई गई है ।
कठ में लिखा है –
यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह ।
बुद्धिश्च न विचेष्ठते
तामाहुः परमां गतिम् ।
तां योगमिति मन्यन्ते
स्थिराभिन्द्रियः धारणाम्
अर्थात् जिस
अवस्था में पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ और मन अपने विषयों से उपरत हो जाते है और बुद्धि भी चेष्टा करना छोड़ देती है , उसे परम
गति कहते है ।इन्द्रियों की उस स्थिर धारणा का ही नाम योग है ।
समत्व का ही नाम योग है । कर्मो में कुशलता को ही योग कहते है । (योगः कर्मसु
कौशलम् ) गीता के योग शब्द का सामान्य अर्थ अपने को लगाना या जोड़ना है । इस प्रकार
कर्म योग का अर्थ हुवा अपने को सामाजिक कर्तव्यों की पुर्ति में लगाना , फलाकांक्षा
न रखकर कर्तव्य बुद्धि से कर्म करने का नाम ही कर्मयोग है ।
एकांत में मन और इन्द्रियों की क्रियाओं को रोककर
, सिर ग्रीवा और शरीर को अचल स्थिर कर के शांत होकर चित्त की शुद्धि के लिये योग करना
चाहिये ।
‘पाप रहित होकर जो नित्य योगाभ्यास करता है
उसे ब्रह्म-संस्पर्श का आत्यंतिक सुख प्राप्त
होता है । ‘
योग
हमे मन के अधीन रहने से बचाता है । योग हमें अनुशासन में रहना सिखाता है । यदि हम अनुशासन
भुल जायेगें तो आसन प्राणायाम से भी कोई विशेष लाभ नही होगा ।
हमारा
शरीर पाँच कोषों में बँटा हुवा है । यह पाँच कोष – अन्नमय कोष , मनोमय कोष , प्राणमय कोष , ज्ञानमय कोष और आनन्दमय
कोष है ।हमें इन पाँचों कोषों को ध्यान में रखकर ही योग करना चाहिये । योग में हमें
आहार पर भी विशेष ध्यान देना चाहिये , आप जितना सात्विक और सीमित आहार लेगें , आपका
शरीर भी उतना ही स्वस्थ रहेगा , और स्वस्थ शरीर ही प्रसन्न मन का आधार होता है । क्योंकि
हर वस्तु की अति या कमी आपकी व्याधि की वजह होती है , चाहे वह व्याधि मन की हो अथवा शरीर की । इसलिये
हर अवस्था में सीमित रहना आपकी प्रसन्नता का कारण होता है ।
यदि
आप योग करते है तो योग में ही आप मंत्रों का उच्चारण करते है , आप ऊँ शब्द का उच्चारण
करते है । ऊँ शब्द का उच्चारण करने से तीनों शक्तियाँ आपस में टकराती है पुर आपमें
एक नई शक्ति नई उर्जा प्राप्त होती है । एक शक्ति आपके अन्दर पहले से विद्यमान होती
है ,चुँकि वह सुशुप्तवस्था में होती है, दुसरी शक्ति ऊँ शब्द के उच्चारण में होती है
, और तीसरी शक्ति पहले से आकाश में विद्यमान होती है ,जब ये तीनों शक्तियाँ आपस में
मिल जाती है तब एक नई शक्ति पैदा होती है और वह आपके शरीर को एक नई स्फूर्ति एक नये
जोश से भर देती है । यही वास्तविक योग है ।एसा करने से आप ईश्वर से भी जुड़ते है और आपको पता ही नही चलता आपकी काफी सारी समस्याएँ
अपने आप दुर हो जाती है ।वास्तव में स्वस्थ शरीर स्वस्थ मन और प्रसन्नता का कारण है
।
योग एक दिव्य शक्ति है ,ऋषि मुनि ही अपनी योग साधना के द्वारा उसे प्राप्त कर सकते है ,हम आप
जैसे साधारण मनुष्य वहाँ तक नही पहुँच सकते ।
Yoga does not mean attaining spiritual happiness. Yoga is a verb. By doing yoga through various asanas, the body remains healthy and healthy. Yoga is practiced in the Brahma Muhurta in the morning, because yoga done in Brahma Muhurta keeps both the mind and body healthy. By doing yoga, your body remains healthy as well as your mind is happy. Yoga not only teaches various asanas but also teaches mind control. If you control your mind, then many problems can be avoided, you can stay away from many diseases. The solution to life's problems is also hidden in yoga.
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