क्या उत्तररामचरित ट्रेजेडी है ?



क्या उत्तररामचरित ट्रेजेडी है  ?
 ‘’एको रस; करुण एव निमित्त भेदाद्
 भिन्न; पृथक्पृथगिव श्रयते विवर्तान्
 आवर्तबुद्बुदतरड़्गमयान् विकारान्
अम्भो यथा सलिलमेव हि तत्समस्तम् 
         प्रस्तुत श्लोक में तमसा के माध्यम से भवभूति अपना मत प्रदर्शित करते है कि ‘’करुण ही एक रस है ‘’ अन्य रस तो उसी के विकार है । यह कथन रस के सम्बन्ध में नये सम्प्रदाय को चलाने का प्रयत्न नही है । रसवादी नवरस मानते है और वे सब भवभूति के नाटको में भी दृष्टिगोचर होते है । वे स्वयं नाटम में सभी रसो के प्रयोग को मानते है – ‘’भूम्ना रसानां गहनाः प्रयोगाः  । मालतीमाधव  १-४
       इस प्रकार इस कथन का महत्व नाटक की उस विशिष्ट घटना के संदर्भ में ही है – तमसा का कथन है कि राम और सीता की यह परिस्थिति जिसमें वे ह्रदय से निकट होते हुवे भी इतने दूर थे बहुत ही करुणापूर्ण है । यह कथन संपूर्ण राम कथा के विषय में भी ठीक ही है । राम तथा सीता के जीवन की विभिन्न घटनाओं में प्रेम, वीरता , अदभूत , भय आदि रसों का दर्शन होता है , पर कथा का प्रधान रस तो करुण ही है । भवभूति केवल यही सूचित करते है कि यही बात उत्तररामचरित में भी है ।
      मानव जीवन में भी करुण रस सभी अनुभवों के मूल में दृष्टिगोचर होता है ।प्रेम रसराज सिद्धि में ही सुखद है – विरहावस्था में तथा विफल प्रेम कष्टप्रद ही है । वीर में संहार तथा मृत्यु है –हास्य में भी प्राय; करुण पृष्ठभूमि रहती है ।
            भवभूति को भी मानव जीवन के इसी करुण आधार का ही दिग्दर्शन कराना अभिष्ट था या नही यह कहना कठिन है  । पर इस समस्या का एक रुपपरक  पक्ष है  उत्तररामचरित में करुण की ही प्रधानता को  स्वीकार कर लेने पर क्या हम उसे ट्रेजेडी मान सकते है  ?
   ट्रेजेडी एक विशेष प्रकार की रचना है –
(१)इसका नायक धीरोदात्त हो -  राम है , सीता त्याग का कार्य शास्त्र की दृष्टि से उनके चरित्र की कमजोरी का द्योतक माना जा सकता है , यह कमजोरी है- आदर्शवादी स्वभाव जिसके प्रभाव से वे अपने लोकरंजन के धर्म को अत्यधिक महत्व देकर अपनी पत्नि का त्याग कर बैठते है
(२)अलंकृत काव्यमय भाषा वो उत्तररामचरित में ही है ।
(३)वास्तव में प्रथम अंक ट्रेजेडी के लिये आदर्श आरंभ है । परन्तु बाद के अंको में इस अंक के करुणापूर्ण तत्वों का विकास नही किया गया है – शेक्सपियर की ट्रेजेडी में एसी घातक कमजोरी नायक को क्रमश; विनाश की ओर ले जाती है और अन्त में उसकी मृत्यु भी होती है ।पर भवभूति के नाटक में नायक को उबारने के प्रयत्न द्वितीय अंक से ही दृष्टिगोचर होता है तथा तृतीय अंक में तो वह निश्चित रुप भी धारण करता है ।
(४)ट्रेजेडी में यदि शक्तिशाली बाह्य प्रभाव हो तो वे प्रायः नायक को कुचलने में ही लगे रहते है । पर उत्तररामचरित में यह शक्तियां` राम के सुख की सजग होकर रक्षा करती है  तथा पत्नि से पुनर्मिलन में सहायक होती है ।
(५)वास्तव में तो इस नाटक का मुख्य उद्देश्य ही ट्रेजेडी का नही है । यदि हम यह देखे कि अंतिम अंक में जो अंत दिखाया गया है वह इस मुख्य उद्देश्य पुनर्मिलन की ही तर्क सम्मत चरम परिणीति है तब तो यह स्पष्ट हो जाता है कि नाटक का रचना विधान भी ट्रेजेडी के अनुकूल नही है ।
(६)इसलिये दुखान्त की तथा करुण भावना में अन्तर करना आवश्यक है । यह करुण भावना ही उत्तररामचरित में प्रधानतया दिख पड़ती है  ।इस प्रकार दुखान्त का शास्त्रीय निषेध , केन्द्रीय कथ्य , तथा उसका नाटकीय परिवेश – यह सभी सूचित करते है कि भवभूति को इस नाटक को दुखान्त ट्रेजेडी के रुप में प्रस्तुत करना अभीष्ट नही था ।वे केवल करुणरस का आलेखन करके ही संतुष्ट थे ।
करुण रस -    रस गृष्टि से ‘एको रस; करुण एव ‘ इन शब्दों से स्वयं भवभूति ने निर्देश किया है कि उत्तररामचरित करुण रस का नाटक है । प्रथम अंक में ही चित्र दर्शन के प्रसंग से ही सीताहरण के बाद की विरह यातना के तार बार –बार गुंज उठते है ।और साथ ही साथ जैसे कालगुहा में उसकी प्रतिध्वनि हो रही है ।इस प्रकार भावी विरह का आभास मिलता है  । ऋतु दूत के आगमन से यह वियोग आ ही पड़ता है  । पर सातवें अंक में दोनों का मिलन होता है – इस पर से कुछ विद्वान उत्तरचरित का रस करुण नही पर विप्रलंभ श्रंगार मानते है ।
            पर श्रंगार – चाहे वह संयोग हो या विप्रलंभ का स्थायी भाव रति है , जबकि करुण का स्थायी भाव शोक है जो इष्टजन के नाश से उत्पन्न होता है , उत्तरचरित के प्रथम अंक के अंतिम भाग से सातवें अंक के अंतिम भाग तक की रचना को देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि राम सीता को मृत ही मानए है । आत्रेयी भी सीता को ‘नामशेषा ‘ कहती है । पंचवटी में राम अपने को ‘नाशितप्रियतम;’ कहते है । वासंती के समक्ष राम सीता को ‘नियतं विलुप्ता’ बताते है – देव्याः शून्यस्य जगतो वास परिवत्सरः ।प्रणष्टमिव नामापि न च रामो न जीवति ‘ यह उदगार भी इसी का सूचक है  । पंचवटी से बिदा होने के पहले राम इस विरह को ‘निरवधिः’ कहते है , लवकुश के समक्ष भी ‘प्रियानाशे जीणरिण्यं जगत् का उल्लेख करते है – इस प्रकार राम के लिये तो सीता का नाश ही हुवा है  इसलिये स्वभावतः राम का स्थायी भाव शोक है – पुटपाकप्रतीकाशो रामस्य करुणो रसः ।रति नही –रस करुण ही है ।
             साहित्यविद विश्वनाथ ने रसों में करुण विप्रलंभ की गणना की है  । दोनों में से किसी एक का नाश हुवा हो , फिर भी परस्पर मिलन हो  तो वहाँ करुण विप्रलंभ को अवकाश रहता है । कादम्बरी में महाश्वेता तथा पुण्डरीक का कथानक – उत्तरचरित में भी ऐसा ही माना जा सकता है ।
       पर करुण का करुण विप्रलंभ से भेद दिखाते हुवे विश्वनाथ ने स्वयं कहा है – शोकस्थायीतया भिन्नो विप्रलंभारय रसः । विप्रलंभे रतिः स्थायी पुनः सम्भोगहेतुकः ।
इस प्रकार उत्तरचरित में करुण रस ही है ।
मध्यवर्ती विचार – रसमीमांसा की दृष्टि से कवि साधारणीभूत भाव का अनुभव करके उसे वाड़्मय रुप में साकार करके हमें भावक को अनुभावन करवाता है । उस समय हम भी उसका साधारणीभूत भावरुप में ही अनुभव करते है  अर्थात रस रुप में ही आस्वाद करते है । सर्जक और भावक दोनो के लिये साधारणीभूत भाव का ही महत्व है । ऐसा होने पर भी सर्जक उसे साकार करता है , विभावादि के निबंधन से रचित विशिष्ट सृष्टि की सहायता से  । इसीलिये किन्हीं दो कवियों की सृष्टि एक सी नही होती  । विभावादि का चयन उनके निबंधन की प्रक्रिया और फलस्वरुप शब्ददेह धारण करती वह समग्र सृष्टि – इन सबमें कवि का विशिष्ट जीवनदर्शन , उसका देखा हुवा कोई जीवन रहस्य एक निर्णायक तत्व रुप में स्थित रहता है ।कवि की विशिष्ट सृष्टि उसकी विशिष्टि दृष्टि का परिणाम है ।यदि हम उस दृष्टि का परिचय करें तो कवि की इस विशिष्टि सृष्टि का साधारणीभूत भावरुप में आस्वादन करने में अधिक अनुकूलता होगी ।
      युरोपीय विवेचकों ने उत्तरचरित में भवभूति का भारत में प्रचलित बहुपत्नित्व की प्रथा के विरुद्ध एकपत्नित्व के आदर्श को उपस्थित करने का आशय देखा है । युरोप की समाज व्यवस्था एकपत्नित्व के आदर्श का बहुत सम्मान करती है  इसलिये वहाँ के विद्वानों को इस नाटक में यह आदर्श प्रभावित करें यह स्वाभाविक ही है । यह आदर्श उत्तरचरित में ही है । पर सीता के नाश के कारण शोक करने के बाद भी राम ने विवाह किया होता तो भी योरोप के एकपत्नित्व के आदर्श को आघात न होता । इस प्रकार स्पष्ट है कि राम के सीता के साथ के संबंध में इस आदर्श से कुछ अधिक अभिप्रेत है  । केवल इसी आदर्श के लिये भवभूति ने इस नाटक की रचना की है ऐसा नही कहा जा सकता  । यह आदर्श भवभूति को नये सिरे से स्थापित भी नही करना था । वाल्मिकी के काल से ही राम कथा के माध्यम से यह आदर्श देश के समाज के सामने उपस्थित ही था ।भवभूति ने रामकथा को लिया तब अनिवार्यतः एकपत्नीत्व के आदर्श को स्वीकार करके ही उन्होंने अपने नाटक की रचना की होगी ।
         भारत के भी कतिपय विद्वानों ने युरोपीय मत का अनुसरण करते हुवे इस नाटक में इसी आदर्श का उद् घोष सुना है । पर एकपत्नीत्व वो कवि की रचना में भूमिका के रुप में गृहीत है  । इसी भूमिका पर भवभूति ने अपने दर्शन विशेष की स्थापना की है ।
     पति और पत्नि एक दूसरे के लिये क्या है इसका दर्शन उत्तररामचरित के राम और सीता में हमें होता है  (चित्र दर्शन प्रसंग में परस्पर स्नेह का सूचन) नाटक के प्रारंभ में ही परस्पर समरस अनुरक्त दम्पत्ति का चित्र है ।(राम और सीता का वार्तालाप ) यहाँ तक कवि ने प्रेम के कल्याणमय दाम्पत्य स्वरुप की पराकाष्ठा का प्रत्यक्ष दर्शन कराया है  ।ऐसा प्रेम इन्द्रियाकर्षण पर निर्भर नही है , वृद्धत्व भी उसके रस को कम कर सके ऐसा नही है , ऐसी राम को ,और उसके माध्यम से हमें प्रतीति होती है  । समय बीतने पर दोनो के ह्रदयों के बीच के सब आवरण हट जाने पर स्नेह सार के रुप में वह स्थिर होता है  और इस प्रकार विरल कल्याण रुप प्रेम की अनुभूति तक कवि हमें ले आया है ।
     पर जो दोनो के बीच में मृत्यु का पर्दा हो तो ? तब उस स्थिर स्नेहसार की स्थिरता टिकेगी ? वृद्धत्व तो उसका रस नही हर सकता पर मृत्यु भी ऐसा कर सकता है क्या ?
     उत्तरचरित के पहले अंक के बाद कवि इस प्रश्न के उत्तर के रुप में हमें अनुभूति कराते है कि प्रियजन की मृत्यु हो तब भी प्रेम तो अमर ही रहता है  । प्रेम की ऐसी अमरता के विषय में कवि चाहे जितना दृढ़तापूर्वक हमें कहे पर ऐसे ही हम उसे थोड़ी मानेगें ? इसलिये उन्होंने एक ऐसी सृष्टि की रचना की जिसमें मृत माना गया हुवा स्वजन स्वयं ही प्रेम की अमरता का साक्षात्कार कर सके और प्रेक्षक के रुप में हम भी ।
   इस प्रकार प्रियजन की मृत्यु के बाद भी उसके प्रति प्रेम तो अमर ही रहता है ऐसा साक्षात्कार विशिष्ट परिस्थिति में सीता को और हमें भी होता है  । प्रियजन मरता है , प्रेम नही , वह तो अमर ही रहता है –इसी अनुभूति को कवि ने उत्तरचरित में साकार किया है ।इसका निर्देश नाटक के प्रथम श्लोक नान्दी में ही विरक्त सूत्रात्मक वाणी में मंत्र रुप में मिलता है ।सामान्यतः नान्दी के नाट्यवस्तु का अथवा पात्र इत्यादि का सूचन होता है । इसी प्रणाली के अनुसार टीकाकार घनश्याम ने कहा है कि दिव्यवाणी के संदर्भ में प्रयुक्त इस नान्दी में ‘’अमृता आत्मनी कला” इस पद में आत्मा से राम का और कला से सीता का सूचन होता है  तो सीता राम की अमृत कला है – सीता की मृत्यु हो जाय तब भी वह राम का अमृतांश है । इस प्रकार कवि का विशिष्ट दर्शन यही है कि प्रेम आत्मा का अमृत अंश है ।
      भवभूति ने प्रेम तत्व को ऐसा गौरव दिया है  फिर भी प्रेम को उन्होंने आत्मा का अंश ही माना है ।महान कवि सत्य को अतिशयोक्ति से विकृत नही होने देते । प्रेम आत्मा की कला – आत्मा का अंश मात्र है –ऐसा कवि ने कहा –पर साथ ही यह भी कहा कि यह अंश अमृत है ।
ऐसे अमृतत्व स्वभाव युक्त प्रेम का समष्टि के प्रति कर्तव्य से विरोध होना संभव है  क्या ? अपनी विशिष्ट अनुभूति को नाटक के माध्यम से साकार करते हुवे भवभूति ने नायक- नायिका को जैसी परिस्थिति में रखा है उससे बहुत लोगों को ऐसा लगता है कि लोकों के आराध्य के लिये राम ने सीता का त्याग किया , समष्टि हित की वेदी पर प्रेम की बली दी । इसे समष्टि के पक्षपाती इसीलिये कवि को आलोचना के योग्य समझते है ।उत्तरचरित में समष्टि विरुद्ध व्यष्टि लोकाराघन विरुद्ध सीता , राजधर्म विरुद्ध प्रेम- यह प्रश्न नही है , पर राजधर्म और प्रेम दोनों – यह प्रश्न है । राजधर्म की बली देकर प्रेम की रक्षा संभव नही है – अष्टावक्र के सामने ही सीता ने स्वयं , राम के मुख से लोकाराघन के लिये अपने त्याग की बात सुनकर , उनका अभिनन्दन ही किया था । पत्नी की आसक्ति से राजधर्म में कोई न्यूनता हो तो सीता की दृष्टि में राम का महत्व घटेगा  उसके प्रेम को आघात होगा ।और प्रेम की बलि देकर मनुष्यता खोकर राम राज धर्म का पालन कैसे कर सकते थे ? यश- परम धन है – तो बासंती का उत्तर उपयुक्त ही है  इस प्रकार राम ने सीता की बलि दी है , प्रेम की नही । अयोध्या में राज्य धर्म का पालन करते हुवे राम ने एक आँसु भी नही बहाया है –इतना उन्होंने समष्टि के लिये किया । पर राजा को अपना उत्तराधिकारी देना चाहिये , राजसूय यज्ञ में सहधर्मचारिणी रखनी चाहिये – ऐसा दावा जब लोक करते है तब राम को यह मान्य नही है – क्योंकि उनकी प्रेम के प्रति भी कुछ वफादारी है । समष्टि राम से जीवित सीता का त्याग भले ही करवा ले पर सीता की सुवर्ण प्रतिमा को यज्ञ में सहधर्मचारिणी के रुप में स्वीकृत करके उन्हें सीता के लिये राम के प्रेम को स्वीकार करना ही पड़ता है – वे राम के प्रेम का त्याग नही करवा सकती । इस प्रकार सीता का त्याग करके राम ने राज धर्म का पालन किया है  और सीता की सुवर्ण प्रतिमा यज्ञ में रखकर प्रेम धर्म की रक्षा की है ।राम दोनों धर्म का ह्रदय से तथा व्यवहार से पालन करते है । व्यवहार में लोकाराधन के सत्यधर्म का पालन करते समय वे ह्रदय से प्रेम धर्म का भी पालन करते है ।सीता की प्रतिमा की स्थापना करके लोगो के समक्ष वे व्यवहार से भी प्रेमधर्म का पालन करते है । फिर भी कभी भी ह्रदय से राजधर्म के पालन में कोई कमी नही रहने दी – लोगो का वे दोष नही देख सकते – दुर्मुख का उत्तर दोष परिस्थिति का है – लोगो का नही – वासन्ती के साथ बातचीत –लक्ष्मण उन्हें तो सीता के पावित्र्य की शंका ही नही – इस विषय में लोगों को ही इस नवीन प्रतीति की आवश्यकता है । उनका रुदन तथा क्षमायाचना   ।‘’
          सीता भी राजधर्म का पालन हो यह चाहती है । परस्पर प्रीतियोग की संवादिता – इसलिये त्याग जैसी घटना से वह छिन्न भिन्न नही हो सकता । समष्टि के प्रति धर्म से प्रेम का विरोध संभव नही है । उसी की भूमिका पर तो प्रेम प्रतिष्ठित है इतना ही नही यह प्रेम ही समष्टि धर्म के पालन को बल देता है । आत्मा के अमृत अंश रुप प्रेम ही नाटक का मध्य बिंदु है  इसलिये राम ने सीता के प्रति द्रोह किया है  ऐसा कहना उचित नही है । रामायण  रघुवंश आदि में राम भाईयों के साथ मंत्रणा करने के बाद सीता त्याग का निर्णय करते है  । भवभूति ने तो जिस प्रकार सीता का त्याग दिखाया है –यह व्यवस्था उचित ही है  । उनके परस्पर प्रेम की दृष्टि से अधिक उपयुक्त है । सीता के साथ लोकापवाद की चर्चा प्रेम के गौरव का हनन करेगा ।
      राम का चरित्र à
            अपने महत्वपूर्ण चरित्रों का विशेषकर राम का चरित्र करने में भवभूति को एक बड़ी बाधा थी। जनसाधारण के लिये राम देव है । भवभूति ने उत्तरचरित में प्रयत्नपूर्वक अपने महावीर को मनुष्य ही बनाये रखने का उपक्रम किया है – पर वाल्मिकी की रामायण के प्रति उनमें जो श्रद्धा थी उसके कारण एक स्थान पर तो वे कला के संयम को छोड़कर राम को परमेश्वर के रुप में ही देखते है । पर यह सत्य है कि भवभूति राम के चरित्र में उदात्त मानवीय भावना तथा नाटक के नायक के उपयुक्त आदर्श ला सकने में सफल हुवे है । राम में कुछ प्रकाश है  चारित्रिक गुण है –
१,गुरुजनों में भक्ति तथा आदर – वास्तविक विनय , उनके आदेशों के पालन करने की तत्परता और यह विश्वास कि गुरुजनों के आदेश तो प्रच्छन्न आशीर्वाद ही है 
२.संस्कारिता – कैकेयी  के आचरण के विषय में कोई चर्चा नही करना चाहते ।
३.कुलगौरव तथा मर्यादा में दृढ़ विश्वास  - वे अपने पिता की आदर्श नृप के रुप में भक्ति करते है  तथा अपने आचरण में भी उस आदर्श को चरितार्थ करने को उद्यत रहते है ।
४.उनकी वीरता तथा पराक्रमों के विषय में तो संदेह ही नही है – साथ ही उनमें महत्ता का सच्चा गुण – विनय है – चित्रदर्शन में वे अपने प्रिय भाई के मुख से भी अपनी वीरता की प्रशंसा सुनना नही चाहते । उनकी पत्नि सीता जो कदाचित सबसे अधिक उनको समझती थी –उनके इस विनयमाहात्म्य पर मुग्ध हो जाती है । यह उक्ति अनुरक्ता पत्नि की ही नही पर एक सूक्ष्मदर्शी की है । पर भवभूति तो राम को एक राजा तथा पति के रुप में ही प्रधानतया प्रस्तुत करते है – इन्हीं दो पक्षों के संघर्ष में ही उनके नाट्यरुप की झलक है । रामराज्य को जो उच्चतम प्रकार की राज्यव्यवस्था के रुप में प्रतिष्ठा मिली है उसका आधार है राजधर्म के पालन में संपूर्ण आत्मत्याग तथा यह मान्यता कि लोकाराघन के लिये कोई भी त्याग बड़ा नही है – राम स्वयं राजधर्म के इस आदर्श को मानते है -     ‘’स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि ।आराधनाय  लोकस्य मुण्चतो नास्ति मे व्यथा ।‘’
     राम की व्यथा यही है कि वे इस उच्च आदर्श को पूर्णरुप से निभाते है । लोकाराधन के लिये वे रावण का वध करते है तथा पत्नि का भी त्याग करते है । वे अपने अन्वगूढ़घनव्यथः शोक को अपनी छाती में ही छिपाये रहते है यद्यपि वह पुटपाक के समान अन्दर ही अन्दर उनको दग्ध करता रहता है । जब सहवास के पूर्वपरिचित स्थान में वे अकेले पँहुचते है तब पूरोत्पीड से युक्त तटाव के समान ही उनका शोक बाँध तोड़कर  बह निकलता है  । पर वहां` भी वे लोगों से अपनी इस विवशता के लिये क्षमायाचना करते है । राम का यह राजारुप तो गौरवमय है ही पर उनकी मानवसुलभ भावनाओं का आवेग भी उत्कट है  । पत्नि के प्रति उनका जो प्रेम है वह अनुपम तथा अद्वितीय  ही है , वह तो प्रतीक है उस सर्वोच्च आनन्द का जो किसी विरले ही भाग्यशाली मनुष्य को प्राप्त होता है  । इसीलिये उसका त्याग करने के लिये बाध्य होने पर अपनी अत्यधिक भर्त्सना करते है –अपने को ‘अपूर्वकर्मचाण्डाल’ कहते है । उनकी इस आत्मभर्त्सना की उक्ति में तो जनक या वासन्ती की आलोचना भी नही ठहर सकती । रान की मानवता तो उभरती है  इस भर्त्सना में – जब वे मनुष्य के रुप में अपने राजारुप के कर्म से घृणा करते है । वे उस वृक्ष के समान है  जिसका वर्णन भवभूति ने किया है – २-६ में  । वृक्ष के समान ही वे सबको छाया देते हुवे रक्षा करते है  तथा कीड़े मकोड़े  उनकी जड़ काटने का प्रयत्न करते है  पर वे धीर गंभीर रहकर धर्म की रक्षा करते रहते है – उनका गंभीर गौरव उनके भावरुप की अगाधता को आवृत्त किये हुवे रहता है – उनका प्रेम अनुपम है  और इसीलिये उनके शोक की किसी से तुलना नही हो सकती । कुश ने ठीक ही कहा था कि –
 ‘’विना सीतादेव्या किमिव  हि न दु;खं रघुपतेः
   प्रियानाशे कृत्सनं  किल जगदरण्यं हि भवति
         राम चाहे राजा के रुप में ‘वज्र से कठोर ‘ हो पर मानव रुप में तो ‘कुसुम से भी कोमल ‘ है । इसी वर्णन में ही उनके संघर्षमय महान व्यक्तित्व की सूचना मिलती है , यही उनके असाधारण व्यक्तित्व का मूल्यांकन भी है ।
   सीता का चरित्र  --  
       सीता का जीवन भी दुख की ही कहानी है  । राम के समान ही वह भी मानो दुखसंवेदन के लिये ही उत्पन्न हुई है जब वे बाल्यावस्था में अपने अनियत रुदन तथा स्मित से तथा स्खलदसमण्जसमण्जु जल्पित से जनक को आनन्दित करती थी या बाद में पुत्रवधु के रुप में अपनी सासों को आनन्दित करती थी – इस अवधि के अतिरिक्त उनके जीवन में वास्तविक सुख कम ही था ।  तमसा ने उनका वर्णन – करुणस्य मूर्तिः या शरीरिणी विरह व्यथा किया है वह उपयुक्त है । ३-५ यह अनुभव बंधन से मुग्ध कुसुम को तोड़ने के समान ही रहा होगा  । इस दीर्घ शोक  ने उसके ह्रदय कुसुम को अवश्य ग्लपित किया होगा | सीता में नारी की अदभूत सहनशीलता है । उसके शोक की उत्कटता ने तो अच्छे वीर को भी नष्ट कर दिया होता पर यह केवल सहनशीलता का ही प्रश्न नही है , उसके करुणापूर्ण जीवन में आधार है उसका पतिप्रेम । उनके बिना तीनों जगत्जीवन शून्य है और उनके साथ जंगल भी स्वर्ग था । २-१८ इसी से पंचवटी का निवास राम के लिये निधि के समान था । वे अपने गुणों – माधुर्य ,स्नेहपूर्ण दया , निर्दोषिता  आज्ञाकारिता के कारण सभी की स्नेहभाजन थी । सास भी सीता को पुत्री ही मानती थी । उनकी उपस्थिति ही जगत का कल्याण देने वाली थी ।
  ‘’त्वया जगन्ति पुण्यानि त्वय्यपुण्या जनोक्त्य
   नाभवन्तस्त्वया लोकास्त्वमनाथा विपत्स्यते  
राम के लिये वे क्या थी यह तो उनकी उक्ति से भलिभांति जाना जा सकता है –
   ‘इयं गेहे  लक्ष्मीरियममृतवर्तिर्नयनयो—
    रसावस्याः स्पर्शो वपुषि बहुलश्चन्दनरसः
    अयम्बाहुः कण्ठे शिशिरमसृणो मौक्तिकसरः
    किमस्या न प्रेयो यदि परमसह्यस्तु विरहः ।
सीता के आदर्श चरित्र में सरल मानवता दृष्टिगोचर होती है । आनन्द के वातावरण में वे लक्ष्मण का मजाक भी उड़ा सकती है तो वे लज्जा और अपराध से पीड़ित लक्ष्मण की स्थिति समझकर उनको सान्त्वना भी दे सकती है वे अनुरक्ता पत्नि की तरह ही दोहद की मांग करती है तथा साथ ही पति के साथ चलने का स्नेह अनुरोध करती है । अपने पति के प्रति प्रेम इतना प्रगाढ़ है कि वे छोटी छोटी अनुराग से भी आनन्दित रहती है – साथ ही उन्हें विश्वास है कि उनके ह्रदयों की संवादिता कभी न होगी । इसलिये उनके त्याग में जो धोखा हुवा है उससे उनको अत्यधिक व्यथा होती है । त्याग को समझ सकती है पर धोखा नही । पर तब भी वे न्यायाधीश के समान राम का न्याय करने नही जाती , राम के समान ही उनके प्रेम की उत्कटता अवमान के दंश को बारह वर्ष की अवधि भी कम नही कर सकी है । पति की आवाज सुनते ही वह मयुरी के समान चौक उठती है --    अपरिस्फुटनिस्वाने कुतस्त्येअपि त्वमीदृशी 
        स्तनीयत्नोर्मयुरीव  चकितोत्कण्ठिता   स्थिता 
       राम के स्पर्श से वे मरुन्नवांभःप्रविधूतसिक्ता  स्फुटः कोरकेव कदंबयष्टिः के समान – सस्वेदरोमांचकम्पिताड़्गी हो उठती है । ३-१३ निराशा से तटस्थता , अवमान से क्रोध, आकस्मिक मिलन से स्तब्ध अविश्वास, सौजन्य से प्रेम भाव उनके ह्रदय में उठते है । आक्रोश तथा प्रेम उनके ह्रदय को दो दिशाओं में खींचते है और वे अपने अनिश्चय से लज्जित है । पर इसी मानवसुलभ कमजोरी में ही उनके चरित्र की महत्ता है और कवि ने जो उनके साथ न्याय किया है वह उनके उदात्त प्रेम की ही विजय है ।
 





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