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Showing posts from July, 2020

योग एक दैवीय शक्ति

         योग से तात्पर्य आध्यात्मिक सुख प्राप्त करने से नही है ।योग एक क्रिया है । विभिन्न आसनों के द्वारा योग करने से शरीर स्वस्थ और तंदुरुस्त रहता है । सुबह ब्रह्म मुहुर्त में ही योग की क्रिया की जाती है , क्योंकि ब्रह्म मुहुर्त में किया हुवा योग मन और शरीर दोनों को स्वस्थ रखता है ।योग करने से आपका शरीर तो स्वस्थ रहता ही है साथ ही आपका मन भी प्रसन्न रहता है । योग सिर्फ विभिन्न आसन ही नही बल्कि मन पर नियंत्रण करना भी सिखाता है । यदि मन पर नियंत्रण कर लिया तो कई समस्याओं से बचा जा सकता है , कई रोगों से दूर रहा जा सकता है ।जीवन की समस्याओं का हल भी योग में छुपा हुवा है ।         मनुष्य को आध्यात्मिक उन्नति के लिये मन और इन्द्रियों का निग्रह करना आवश्यक है ।योग की महिमा अनेक उपनिषदों में गाई गई है । कठ में लिखा है –                                  यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह ।                                बुद्धिश्च न विचेष्ठते तामाहुः परमां गतिम् ।                              तां योगमिति मन्यन्ते स्थिराभिन्द्रियः धारणाम्                                       

उपनिषदों में रहस्यवाद

ब्रह्म के वर्णन में उपनिषद कभी कभी बड़ी रहस्यपूर्ण भाषा का आश्रय लेते है   । भारतीय रहस्यवाद का श्रोत उपनिषद ही है । ईशोपनिषद कहता है , ‘वह ब्रह्म चलता है , वह नही चलता, वह दूर है , वह पास भी है, वह सबके अन्दर है , वह सबके बाहर है ‘ । अपने आराध्य के विषय में इस प्रकार की अनिश्चित भाषा का प्रयोग रहस्यवाद का बाह्य लक्षण है । ध्यान-मग्न साधक   अपने प्रेमास्पद   का , अनंत ज्योतिर्मय आत्म तत्व का , साक्षात्कार करता है । मानव स्वभाव से प्रेरित होकर वह उस साक्षात्कार की अनुभूति को वाणी में प्रगट करना चाहता है । परन्तु सीमित भाषा असीम का वर्णन कैसे कर सकती है ? अनंत प्रेम , अनंत सौन्दर्य और अपार आनन्द को प्रगट करने के लिये मानव भाषा में शब्द नही है   । प्रियतम को देखने और आत्मसात करने का जो असीम उल्लास , उसकी रुपशिखा के प्रत्यक्ष का जो अपरिमित आश्चर्य है, वह सीमित और व्यवहारिक मस्तिष्कों से निकली हुई भाषा से परे है ।     यही रहस्यवादियों की चिरकालिक कठिनाई है , यही कारण है कि हमें कबीर जैसे कवियों की वाणी अटपटी और अद्भूत प्रतीत होती है । इसी कारण उपनिषदों की भाषा सीधी और सरल होते हुवे

क्या उत्तररामचरित ट्रेजेडी है ?

क्या उत्तररामचरित ट्रेजेडी है   ?   ‘’एको रस; करुण एव निमित्त भेदाद्   भिन्न; पृथक्पृथगिव श्रयते विवर्तान्   आवर्तबुद्बुदतरड़्गमयान् विकारान् अम्भो यथा सलिलमेव हि तत्समस्तम्   ।          प्रस्तुत श्लोक में तमसा के माध्यम से भवभूति अपना मत प्रदर्शित करते है कि ‘’करुण ही एक रस है ‘’ अन्य रस तो उसी के विकार है । यह कथन रस के सम्बन्ध में नये सम्प्रदाय को चलाने का प्रयत्न नही है । रसवादी नवरस मानते है और वे सब भवभूति के नाटको में भी दृष्टिगोचर होते है । वे स्वयं नाटम में सभी रसो के प्रयोग को मानते है – ‘’भूम्ना रसानां गहनाः प्रयोगाः   । मालतीमाधव   १-४        इस प्रकार इस कथन का महत्व नाटक की उस विशिष्ट घटना के संदर्भ में ही है – तमसा का कथन है कि राम और सीता की यह परिस्थिति जिसमें वे ह्रदय से निकट होते हुवे भी इतने दूर थे बहुत ही करुणापूर्ण है । यह कथन संपूर्ण राम कथा के विषय में भी ठीक ही है । राम तथा सीता के जीवन की विभिन्न घटनाओं में प्रेम, वीरता , अदभूत , भय आदि रसों का दर्शन होता है , पर कथा का प्रधान रस तो करुण ही है । भवभूति केवल यही सूचित करते है कि यही बात उत्तरर