उपनिषदों में रहस्यवाद
ब्रह्म के वर्णन
में उपनिषद कभी कभी बड़ी रहस्यपूर्ण भाषा का आश्रय लेते है । भारतीय रहस्यवाद का श्रोत उपनिषद ही है । ईशोपनिषद
कहता है , ‘वह ब्रह्म चलता है , वह नही चलता, वह दूर है , वह पास भी है, वह सबके अन्दर
है , वह सबके बाहर है ‘ । अपने आराध्य के विषय में इस प्रकार की अनिश्चित भाषा का प्रयोग
रहस्यवाद का बाह्य लक्षण है । ध्यान-मग्न साधक
अपने प्रेमास्पद का , अनंत ज्योतिर्मय
आत्म तत्व का , साक्षात्कार करता है । मानव स्वभाव से प्रेरित होकर वह उस साक्षात्कार
की अनुभूति को वाणी में प्रगट करना चाहता है । परन्तु सीमित भाषा असीम का वर्णन कैसे
कर सकती है ? अनंत प्रेम , अनंत सौन्दर्य और अपार आनन्द को प्रगट करने के लिये मानव
भाषा में शब्द नही है । प्रियतम को देखने और
आत्मसात करने का जो असीम उल्लास , उसकी रुपशिखा के प्रत्यक्ष का जो अपरिमित आश्चर्य
है, वह सीमित और व्यवहारिक मस्तिष्कों से निकली हुई भाषा से परे है । यही रहस्यवादियों की चिरकालिक कठिनाई है , यही
कारण है कि हमें कबीर जैसे कवियों की वाणी अटपटी और अद्भूत प्रतीत होती है । इसी कारण
उपनिषदों की भाषा सीधी और सरल होते हुवे भी कहीं कहीं दुरुह हो जाती है ।
‘उसमें स्पंदन नही है (अनेजत्) लेकिन वह मन से
भी अधिक वेगवान है , देवता उस तक नही पहुँच सके , पर वह देवताओं तक पहले से ही पहुँचा
हुवा है । वह सब दौड़ते हुवों को अतिक्रमण कर जाता है । यद्यपि स्वयं एक ही जगह स्थिर
रहता है । उसके भीतर रह कर ही वायु जल को धारण
करता है ।‘ यमाचार्य कहते है –
आसीनो दूरं व्रजति शयानो वाति सर्वतः
कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति
।
‘’बैठा हुवा
वह दूर चला जाता है , सोता हुवा वह सर्वत्र पहुँच जाता है । उस हर्ष और अहर्ष (शोक)
सहित विरुद्ध धर्म वाले दैवता को मेरे सिवाय
कौन जान सकता है ।‘’ इस
ब्रह्म को जानने में मन और इन्द्रियाँ असमर्थ है । वृहदारण्यक
में लिखा है-
तस्मात् ब्राह्मणः पाण्डित्यं निर्विद्यबाल्येन तिष्ठासेत् ।
अर्थात् ‘इसलिये
ब्राह्मण को चाहिये कि पाण्डित्य को छोड़ कर बालक पन का आश्रय ले । बालक के समान सरल
बने बिना ब्रह्म प्राप्ति नही हो सकती । मुण्डकोपनिषद
का उपदेश है –
प्रणवो धनुः सरो हयात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते
।
अप्रमत्तेन बेधव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ।
‘’प्रणव को
धनुष समझना चाहिये और आत्मा को बाण , ब्रह्म ही लक्ष्य है । प्रमाद हीन होकर इस प्रकार
बेधना चाहिये कि आत्मा ब्रह्म में , लक्ष्य में तीर की तरह , तन्मय होकर मिल जाय ।‘
इस प्रकार उपनिषद में रहस्यवाद का बड़ा ही रोच्क
वर्णन किया गया है । ब्रह्म को उपनिषद तर्क बुद्धि से परे और कर्मो से न बढ़ने –घटने
वाला ( न कर्मणा वर्धते नो कनीयान् ) बतलाते है । ब्रह्म धर्म और अधर्म , ज्ञात और
अज्ञात से भिन्न है । मोक्ष का स्वरुप भी ब्रह्मभाव ही है ।
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