विष्णु सूक्त
सुख जाता है  इसलिये बल का नाम ‘शूष्’ 
              (४) शूष् धातु से घण् प्रत्यय करने
पर ‘शूष्’ शब्द की सिद्धी होती है । शूषम् मन्म का विशेषण है । 
                (५) मन्म- मन्त्र, मनन , स्रोत  ।
                (६) विममे- उदात्त का लोप नही , पाद
के प्रारम्भ में है ,  यद्वृतान्तनित्यं  ।
                (७)पदेभि;-    अवग्रह से अलग नही दिखाया । 
                (प्रयतम्-   दीर्घ,  
विशाल  , नियत   (सायण) 
।
                 (८) वृष्ण-   वर्धनशील 
कामानल   (विष्णु) ‘वृषण’  शब्द यद्यपि अनेको बार प्रयुक्त है  तथापि स्पष्ट नही है । तथा यह शब्द  वीर्य सेवता या बलवान अर्थ में प्रयुक्त होता है
। धीरे धीरे यह अर्थ परिवर्तित होता गया । 
                    (९) गिरिक्षिते-  उन्नत प्रदेशों में , वाणी मे निवास करता है । 
                    (१०) क्षिति -  पृथ्वी , निवास के अर्थ में , अग्नि वैदिक दैवताओं
में पुजक , उनके बीच में स्थायी , भावी नही , दास्य भाव नही , विष्णु वरुण से डरते
है , रुद्र से डरते है । हविष्यान्न  कौन दे
रहा है । परस्पकम् भावयन्तः  । 
(४)  यस्य त्री पूर्णा  मधुना  पदान्य  अक्षीयमाना 
स्वधया मदन्ति ।
      य  उ
त्रिधातु  पृथिवीमुत   द्याम् एको 
दाधार  भुवनानि  विश्वा । 
पदपाठ
-  यस्य । त्री । पूर्णा । मधुना । प्रदानि
। अक्षीयमाना । स्वधया । मदन्ति । यः । हूँ इति ।
              त्रिधातु । पृथिवीम् । उत् । द्याम्
। एकः । दाधार ; । भुवनानि । विश्वा । 
व्याख्या-  (१) स्वधया – मैकडानल -   स्वधा इति अन्ननाम् (अन्न से प्रसन्न ) राँथ का
मत है भारत  वैदिक स्वधा शब्द का पूर्णतया विस्तृत
कर चूका है , उनके मत में रितिरिवाज , विधि, नियम , व्यवस्था ।
           (२) अक्षीयमाना- अ+क्षी+शानच्  । छन्दोगति की दृष्टि से पदानि  अक्षीयमाना 
पठितव्य  है । 
            (३) मदन्ति-  मादयन्ति    
(प्रेरणार्थक )   लेना है । 
             (४) स्वधा-  पितरों के लिये की जाती है ।  
             (५) स्वाहा – अच्छे अर्थ में दी जाती
है । 
            (६) 
स्वधा – विभिन्न संदर्भों में विभिन्न अर्थ है , कुछ विद्वान इसका अर्थ स्वतन्त्रता
करते है , सायण तथा मैक्डानल इसका अन्न ही करते है  । राँथ ने इसका अर्थ  स्वीट ड्रिन्क   किया है । प्रोफेसर  राँथ के अनुसार भारतीय परम्परा वैदों के अर्थ जानने
में सहायक नही ।
                (७) भुवन् का अर्थ  सायण ने लोक किया है , परन्तु प्राणी अर्थ ज्यादा
उपयुक्त है । 
                (८) दाधार – केवल वैदिक रुप । अभ्यास
में दीर्घ का ह्रस्व होता है , लैकिन यहाँ नही हुवा , ‘दीर्घोभ्यासस्य”  सूत्र से । 
(५)  तदस्य प्रियमपि  पाथो अस्मां 
नरो यत्र देवयवो मदन्ति ।
        उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था , विष्णोः प्रदे
परमे मध्व  उत्स ।
पदपाठ- तत्
। अस्य । प्रियम् । अभि । पाथ ; । अस्याम् । नरः 
। यत्र । देवयव ; । मदन्तिः ।      उरुक्रमस्य
।  स; । हि । बन्धुः  । विष्णो । पदे । परमे । मध्यः । उत्सः ।
अर्थ   -   इस
विष्णु के उस प्रिय लोक को मै प्राप्त करुँ जहाँ पर देवताओं के इच्छुक मनुष्य 
             आनन्द करते है । विशाल गतिवाले विष्णु
के श्रेष्ठ लोक में मधु का एक सरोवर है । इस          
              प्रकार निश्चित ही वह (सबका) मित्र
है ।
व्याख्या- पाथ;
- ब्रह्म लोक को (सायण) 
               यास्क-  पाथो अन्तरिक्षं  पथा व्याख्यातम् । उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था
–सायण 
              उरुक्रम विष्णु के परम पद में मधु का
उत्स है , इस प्रकार वह सबका बन्धु है । 
              पीटर्सन  -यहाँ उरुक्रम विष्णु देव का साहचर्य है , विष्णु
के परम पद में मधु का 
               उत्स है । मैक्डानल  बन्धु को उत्स के लिये प्रयुक्त मानते है ।
                           उरुक्रमस्य  स हि  बन्धुरित्था
–सायण स हि बन्धुरित्था इस प्रकार यह 
                 विष्णु निश्चित ही सबका बन्धु है
, अर्थ कर इसे निक्षिप्त वाक्य के रुप में पस्तुत 
                करते है । ग्रासमन- यहाँ माधुर्य
निर्झर है । इस प्रकार राँथ बन्धु को स्वर्ग समान 
                 तथा ‘नरो देवयव;’ की समुदायपरक अभिव्यक्ति
भी करते है ।
                इत्था- पिशेल अत्र से एत्थ को व्युत्पन्न
कर एत्थ और इत्था को समान मानते है ।  
(६)      ता वां वास्तुन्युष्मति गमध्यै  यत्र  गावो  भूरिश्रवा अयासं  ।
           अत्राह तदुरुगावस्य  वृष्ण; , परमं 
पदमव  भाति भूरिं ।
पदपाठ- ता ।
वाम् । वास्तूनि । उश्मसि । गमध्यै । यत्र । गाव; । भूरिश्रवा । अयासः । अत्र । अह
। तत् । उरुगायस्य । वृष्ण; । परमम् । पदम् । अव । भाति । भूरि । 
अर्थ – तुम
दौनों को उन स्थानों पर जाने के लिये मै इच्छा करता हूँ । जहाँ पर बहुत सींग वाली
( अत्यधिक प्रकाशवाली) हमेशा गतिशील रहनेवाली गायें (किरणें) है । यही पर विशाल गतिवाले
इच्छाओं की पूर्ति करने वाले (विष्णु) का उस प्रकार का परमधाम  नीचे (हमारी तरफ)  अत्यधिक रुप से प्रकाशित हो रहा है ।
व्याख्या- ता
वां  - पत्नि , यजमान की बात है , दो दैवता
की नही । मैक्डानल – किसी सहचर दैवता , इन्द्र और विष्णु  , का साथ है । मित्रावरुण भी । 
           गाव; - सूर्य की किरणें , सूर्य-रश्मि
(सायण) यास्क भी यही अर्थ करते है । 
           उश्मति -  तिड़ तिड़ इति सूत्रेण सर्वानुदात्तः भवति । 
           अयास; - सायण के अनुसार अय शब्द है , अयास;
वैकल्पिक रुप है । मैक्डानल के 
          अनुसार यह अकारान्त नही है , सकारान्त है
, अया मूलरुप है । अन्यत्र भी अयासौ , 
           अयासं रुप मिलते है ।अव भाति अयास;         यद् वृतान्त नित्यं  इति नियात; 
।
                      प्रस्तुत मंत्र तथा पूर्ववर्ती
मंत्रों में लोकान्तर गमन की मान्यता का प्राचीनतम 
          बीज माना जा सकता है , और इन मंत्रों को
भक्त विद्वानों ने भक्तिकालीन बैकुण्ठधाम  
          गमन की मान्यता का भी आधार माना है ।
       गमध्यै – गम् से तुमर्थ में अध्यै प्रत्यय
।
          गावो भूरिश्रवा – सायण के अनुसार अत्युन्नत
सर्वाश्रयणीय किरणें । पीटर्सन – संभवत; 
          अगणित 
किरणयुक्त तारे । मै. के मतानुसार संभवत; सायण का अर्थ संगत है , उषस् 
          रश्मियाँ गायों के साथ तुलित हुई है तथा
प्रकाश लोक विष्णु के तृतीय पाद के अनुरुप सूर्य प्रकाश सम्बन्ध पदार्थ ही उपयुक्त
है । मै. राँथ पर आधृत पीटर्सन के मत को आधारहीन कहते है । 
            अयास; - सायण- गमनशील , गतिमति , अतिविस्तृत  तथा गतिरहित परम प्रकाश युक्त ।
 राँथ- इसे अ+यास से निष्पन्न करते है । उनके अनुसार
इसका अर्थ है – द्रुतगति , तीव्र, सक्रिय , तेज, चुस्त, चालाक, हल्का, विशारद, प्रवीण
, दक्ष, विज्ञ, निपुण । 
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