अग्नि सूक्त


(१)अग्निमीडे    पुरोहितम्  यज्ञस्य  देवमृत्विजम्  होतारम्  रत्नधातमम्  ।
पदपाठ  -   अग्निम्  । ईडे । पुरःहितम् । यज्ञस्य । देवम् । ऋत्विजम् । होतारम् । रत्नधातमम् ।
     संदर्भ- ऋग्वेद का प्रथम सूक्त अग्नि सूक्त ९मंत्र में वर्णित है । अग्नि सूक्त के ऋषि श्री वैश्वामित्र मधुच्छंदा है । इसका गायत्री छंद है तथा अग्नि दैवता है । प्रथम सूक्त में भगवान वेदपुरुष द्वारा  अग्नि देव की स्तुति की गई है ।
       अर्थ- मै अग्र भाग में रखे यज्ञ के प्रकाशक , ऋतु के अनुकुल यजन करने वाले , हवन करने वाले अथवा दैवताओं को बुलाने वाले , रत्नों को धारण करने वाले अग्नि की प्रशंसा करता हूँ ।एसे अग्नि के गुणों का वर्णन करता हूँ ।
          (अथवा)   यज्ञ में सर्वप्रथम आव्हान किये जाने वाले यज्ञ को प्रकाशित करने वाले  ऋतुओं के अनुसार यज्ञ सम्पादित करने वाले  दैवताओं का आव्हान करने वाले तथा घृत प्रदान करने वालों में सर्वश्रेष्ठ अग्नि दैवता की मै स्तुति करता हूँ ।
व्याख्या-प्रस्तुत मंत्र में पद पाठ की दृष्टि से अग्निम् । इस शब्द में 'आमंत्रिते च’ इस सूत्र से उदात्त लोप नही होता और उदात्त स्वर पद के प्रथम अक्षर पर सकान्त हो जाता है । अतः ग्नि उदात्त ही रहेगा ।
           अग्नि शब्द का सामान्य अर्थ यहाँ पर आग से लिया गया है , ऐसा नही अपितु लौकिक संस्कृत भाषा में भी अग्नि पर्यायवाची शब्द अनेक है । वैश्वानर , धनन्जय, जातवेदा, तदूनपात , रोहिताश्व, हिरण्यरेता, सप्तार्चि , सप्तजिव्ह, सर्वदेवमुख, हुतवत, हुतभुक, आदि अग्नि के पर्याय शब्द है ।
ईडे-यह शब्द अपादादौ इस सूत्र से सर्वानुदात्त है । ईडा शब्द वाड़नामों में पठित होने से इसका अर्थ वाणी है । ईडा शब्द का दूसरा अर्थ भूमि है । इसका तीसरा अर्थ गाय है , और गायवाचक गो शब्द के संस्कृत में ‘वाणी , भूमि, इन्द्रिय, गाय है । तात्पर्य ये अर्थ परस्परों के वाचक है ।
तिड़्तिड़ इति सूत्रेण सर्वानुदात्त ; भवति । मुख्यवाक्यस्य मुख्यक्रियारुपम् अस्ति , अत; उदात्तस्य लोप; भवति ।
पुरोहितम्- पुरःहितम् –वेद में इसका अर्थ ‘अग्रभाग में रखा हुवा’ एसा किया है । सायण महोदय इसका अर्थ यज्ञविधायक अर्थात् यज्ञ में जो सर्वप्रथम आयण करता है ।पुरः+धा+क्त ।
ऋत्विजम्-ऋतु+यजम्  ।ऋतु के अनुसार जो यज्ञ करता है ।
रत्नधातमम्- (अनुदात्तम् पदमेकवर्जम् ) अतः यहाँ धा उदात्त है  । रमणीयत्वात् रत्नं त्वम् । दधाति धातुरत्र दानार्थवाचिति ।तदितम् निरुक्तकारस्य यास्कस्य मन्त्र व्याख्यानम् ।
‘अग्निमीडे पुरोहितम् ‘ इन पदों का अर्थ किन्ही विद्वानों ने ‘’मै प्रत्यक्ष हितकर्ता (अग्नि) जीवाग्नि का संवर्धन करता हूँ । एसा भी किया है ।
                                                इस प्रकार प्रत्येक मन्त्र की लौकिक अलोकिक व्याख्या की जाती है , तथा वेदों में मन्त्रों को पढ़्ते समय उदात्त अनुदात्त स्वरित प्रचय अर्थात कौन सा स्वर ऊँचा , कौनसा नीचा , कौनसा सामान्य आदि बातों को ध्यान में रखकर समझकर मन्त्रों का उच्चारण करना चाहिये । 
           यहाँ पर इस मंत्र की विस्तृत व्याख्या हर वाक्य की थोड़ी विस्तार रुप में व्याख्या को समझते है –
यज्ञस्य देवम्- यह अग्नि यज्ञ का देवत्व है । जिस यज्ञ का देवता अग्नि है , वह यज्ञ कौनसा है ? इसके उत्तर में एक मंत्र है-
             अविंदन्ते अतिहितम् यदासीत्
             यज्ञस्य धाम परमम् गुप्त यत्  ।
     जो यज्ञ का परम स्थान बुद्धि में  ह्रदय में है वह अत्यन्त गुप्त है , परन्तु ज्ञानी सत्पुरुष उसको प्राप्त करते है ।
       इस मंत्र में यज्ञ का स्थान ह्रदय है ऐसा स्पष्ट कहा है ।‘’यज्ञ का स्थान ह्रदय में गुप्त है ‘’ इस ऋग्वेद के कथन का आशय उपनिषदकारो ने स्पष्ट किया है । यही यज्ञ यहाँ इस ऋग्वेद के प्रथम सुक्त में है , और इसी यज्ञ का देव जो अग्नि है , वह ह्रदय में ही विराजमान है । ह्रदय में जो आत्मशक्ति है , वही यह अग्नि है । यहाँ ह्रदय में बैठकर ही यह आत्मा आयुष्य की समाप्ति तक यज्ञ कर रहा है ।
      यह ‘यज्ञ का देव ‘ है, और यही ऋत्विज है । लेकिन १ यज्ञ का देव २ पुरोहित ३ऋत्विज ४ होता आदि सब बाह्य यज्ञ में अलग अलग होते है , परन्तु इस प्रथम मंत्र में वर्णित यज्ञ में वे सब एक ही वस्तु में मिल जाते है । अत; इस मंत्र में वर्णन किया हुवा यज्ञ अध्यात्म यज्ञ है, बाह्य यज्ञ नही ।वाणी , प्राण , चक्षु , मन में क्रमशः होता , उद्गाता, अध्वर्यु, ब्रह्मा है । आत्मा ही सब यज्ञ कर रहा है ।
ऋत्विज – ऋतु+यज , जो ऋतु के अनुसार यज्ञ करता है । अध्यात्म दृष्टि से व्यक्ति में ६ऋतु है – १,उत्पत्ति २, अस्तित्व ३, वर्धन ४, विपरिणाम ५,क्षीणता ६,नाश । जगत के सम्पूर्ण पदार्थो में ये ६ ऋतु है \ प्राणिमात्र में जो आत्माग्नि है , वह इन ६ ऋतुओं में प्राप्त ऋतु के अनुकुल व्यापार करता है । आत्मा की प्रेरणा से बालक पैदा होता है, वह अपने अस्तित्व के लिये प्रयत्न करता है , शरीरादि को बढ़ाता है , बढ़ते बढ़ते परिपक्व हो जाता है , पश्चात क्षीणता का ऋतु प्रारम्भ होता है और अन्त में नाश होता है । इस प्रकार इस यज्ञ का प्रारम्भ और अन्त आत्मा ही करता है । इन ऋतुओं के अनुसार अपनी ऋतुचर्या करने से आयु आरोग्य और बल प्राप्त होता है । इसी प्रकार मास में और प्रतिदिन ऋतु होते है । अर्थात कोष्ठक से देख सकते है –
आयु में                           वर्ष में                      मास में                         दिन में
१०० वर्ष                       १२ मास                   ३० दिन                       २४ घण्टे
जन्म  बालपन                 बसंत                         प्रतिपदा                       प्रातःकाल
युवावस्था                       ग्रीष्म                          अष्टमी                         मध्यस्थ
तारुण्य                           वर्षा                            पुर्णिमा                        सायंकाल
वृद्धता                           शरद                             षष्ठी                         रात्रि का प्रारंभ
क्षीणावस्था                    हेमन्त                             द्वादशी                       मध्य रात्र
अंत समय                         शिशिर                        अमावस्या          रात्रि का अंतिम प्रहर
    इस प्रकार समय के छोटे और बड़े विभाग में ऋतुओं की कल्पना की जाती है ।
होता- इस शब्द का अर्थ दाता आदाता और आव्हान कर्ता है । देने वाला लेने वाला और बुलाने वाला ये तीन भाव इस शब्द में है । विद्या प्राप्त करनी, विद्यार्थियों को अपने पास बुलाना और उनको विद्यादान करना यह ‘ज्ञानयज्ञ’ का हवन है ।धन प्राप्त करना जिनको धन की आवश्यकता है उनको निमंत्रण देना और उनको धन का अर्पण करना , यह द्रव्ययज्ञ है । इसी प्रकार अन्यान्य यज्ञों में ‘होता’ का काम निश्चित है । अध्यात्म दृष्टि से व्यक्ति के शरीर में आत्माग्नि प्राकृतिक पदार्थों को प्राप्त कर रहा है । वायु , सूर्य , जल आदि देवताओं के अंशों को बुलाकर उनको शरीर के भिन्न स्थानों  में रखता है और अपनी शक्ति देकर उनके द्वारा यह शत सावंत्सरिक यज्ञ करता है । इसी प्रकार उनकी उन्नति के लिये हर एक को अपने कार्यक्षेत्र में करना चाहिये ।
रत्नधातमम्- रत्नों को धारण करने वाला \ यहाँ शंका हो सकती है कि यह आत्मा रत्नों को धारण करती है , इसके समाधान में कहते है कि –
दमे दमे सप्त रत्ना दधादोअग्निर्होता निषसप्त यषीयान् ।
        इस शरीर में यह अग्नि आत्माग्नि सात रत्नों का धारण करता है । ये सात रत्न है –मुख, नैत्र , कर्ण ,नासिका, त्वचा से पण्च ज्ञानेन्द्रियाँ , मन, तथा बुद्धि ।
           जिस प्रकार विभिन्न रत्नों के अलंकारों से शरीर की शोभा बढ़ती है , उसी प्रकार उक्त इन्द्रिय शक्तियों के विकास से मनुष्य की शोभा वृद्धिगत होती है । व्यक्ति और जगत में भी सप्त रत्न होते है समाज और राष्ट्र में प्रकास , शान्ति, उग्रता, ज्ञान, गुरुत्व, वीर्य और धैर्य इन सप्त गुणों के कर्म करने वाले श्रेष्ठ पुरुष रत्न रुप होते है , और वे ही राष्ट्र की शोभा बढ़ाते है ।

               इस प्रकार विस्तृत रुप से अग्नि सुक्त की व्याख्या की गई है , हर एक शब्द की व्याख्या को समझना एवं उसका समुचित रुप से  लौकिक एवं अलौकिक व्याख्या को समझना अनिवार्य है ।

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