संस्कृत भाषा का अनमोल खजाना

संस्कृत भाषा का अनमोल खजाना
संस्कृत भाषा के इस खजाने में कई अमूल्य रत्न छुपे है , बस जरुरत है उन रत्नों को ढूँढ निकालने
संस्कृत भाषा सबसे प्राचीन अमूल्य अनोखी अवर्णनीय अतुल्य भाषा है ।संस्कृत भाषा संविधान की आठवी अनुसूची में शामिल एक भाषा है  , प्राचीन भारतीय ज्ञान इसी भाषा में है ।अतः इसे वैकल्पिक विषय के रुप में नही बल्कि एक अनिवार्य विषय के रुप में शामिल किया ✓जाना आवश्यक है ।
        देश में एक ऐसा वर्ग बन गया है जो कि संस्कृत भाषा से शून्य है  परन्तु उनकी छद्म धारणा यह बन गई है कि .. संस्कृत में जो कुछ भी लिखा है वे सब पूजा पाठ के मण्त्र ही होगें , इसका एकमात्र कारण उन्होंने कभी संस्कृत भाषा का अध्ययन ही नही किया ।उन्हें इस बात का अंश मात्र भी ज्ञान नही है कि संस्कृत के इस विशाल भंडार में विपुल खजाने में क्या क्या वर्णित है एवं कितना कुछ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है ।अब आपको एक छोटा सा उदाहरण बताना चाहती हूँ  जिसको पढ़ कर आप इतना तो समझ ही जायेगे कि इस भाषा में कितना कुछ है –
    चतुरस्त्रं मण्डलं चिकीर्षन् अक्षयार्थं मध्यात्प्राचीमभ्यापातयेत् 
    यदितिशिष्यते तस्य सह तृतीयेन मण्डलं परिलिखेत् ।
बोधायन ने उक्त श्लोक को लिखा है  , यह कोई पूजा पाठ का मंत्र नही है । अब इसका अर्थ समझते है -   यदि वर्ग की भुजा 2a हो तो वृत्त की त्रिज्या r=[r=[a+1/3(✓2aa)]=[1+1/3((✓2=1)]a      ये क्या है ?
ये तो कोई गणित या विज्ञान का सूत्र लगता है ?  भारतीय कही ऐसा कर सकते है  ?
 शायद  ईसा से जन्म से पूर्व पिंगल के छंद शास्त्र में एक श्लोक प्रगट हुवा था ।
हालायुध ने अपने ग्रंथ मृतसंजीवनी में , जो पिंगल के छंद शास्त्र पर भाष्य है , इस श्लोक का उल्लेख किया है  ।
परे पूर्णमिति । उपरिष्टादेकं चतुरस्त्रकोष्ठमं लिखित्वा तस्याधस्तात् उभयतार्धनिष्कान्तमं कोष्ठद्वयं लिखेत् ।तस्याप्यधस्तात् त्रयं तस्याप्यधस्तात् चतुष्टयं यावदभिमतं स्थानमिति मेरुप्रस्तारः  । तस्य प्रथमे कोष्ठे एकसंख्यां व्यवस्थाप्य लक्षणमिदं प्रवर्तयेत् । तत्र परे कोष्ठे यत् वृत्तसंख्याजातम् तत् पूर्वकोष्ठयोः पूर्ण निवेशयेत् ।
       शायद ही किसी आधुनिक शिक्षा में मेथ्स् में बी.एस.सी किया हुवा भारतीय छात्र इसका नाम भी सुना हो  ? ये मेरु प्रस्तर है  ।
  परन्तु जब ये पाश्चात्य जगत से पाश्कल त्रिभुज के नाम से भारत आया तो उन कथित सेकुलर भारतीय को शर्म इस बात पर आने लगी कि …. भारत में ऐसे सिद्धान्त क्यों नही दिये जाते ?
    अब मुझे उस कथित सेकुलर भारतीय पर हँसी आ रही है  जिसने भारत जैसे देश में जन्म लिया , लेकिन संस्कृत भाषा पढ़ना उसके लिये शर्म की बात थी , काश उन्होंने संस्कृत के इस विशाल भंडार में से कुछ अंश का ही अध्ययन किया होता ,और पाश्चात्य जगत में जाकर बताया होता कि यह मेरु प्रस्तर है तो शायद उन्हें शर्म की बजाय अपने और अपनी भाषा पर गर्व महसुस होता  , भारत में इससे भी कई अच्छे सिद्धान्त है  आगे उनके कुछ उदाहरण बताती हूँ ।
        चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्त्राणां  ।
       अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्यासन्नो  वृत्तपरिणाहः ।
           ये कोई पूजा का मंत्र ही लगता है ना ?
       नही भाई ये किसी गोले के व्यास व परिधी का अनुपात है ।
जब पाश्चात्य जगत से ये आया तो संक्षिप्त रुप लेकर आया ऐसा जिसे २२/७ के रुप में डिकोड किया जाता है  ।
हालाँकि  उक्त श्लोक को डिकोड करेगें अंकों में तो ….कुछ यू होगा …..
 (१००+४)*८+६२०००/२००००= ३.१४१६
ऋग्वेद  में  का मान ३२ अंक तक शुद्ध है
गोपीभाग्य मधोव्रात ; श्रुंगशोदधि संघिगः  ।
खलजीवितखाताव  गलहाला रसंधरः  ।
   इस श्लोक को डिकोड करने पर  ३२ अंको तक  का मान
३.१४१५९२६५३५८९७९३२३८४६२६४३३८३२७९२……..आता है ।
 
     चक्रीय चतुर्भुज का क्षेत्रफल
बाह्यस्फुटसिद्धान्त  के गणिताध्याय के क्षेत्र व्यवहार के श्लोक १२.२१ में निम्नलिखित श्लोक वर्णित है –
स्थूल-फलम् त्रि-चतुर्-भुज-ऊन-घातात् पदम् सुक्ष्मम्  ।
(त्रिभुज और चतुर्भुज का स्थूल (लगभग) क्षेत्रफल उसकी आमने सामने की भुजाओं के योग के आधे के गुणनफल के बराबर होता है  । तथा सूक्ष्म ( exact) क्षेत्रफल भुजाओं के योग के आधे मे से भुजाओं की लम्बाई क्रमश; घटाकर और उनका गुणा करके वर्गमूल लेने से प्राप्त होता है ।)

         ब्रह्मगुप्त  प्रमेय
चक्रीय चतुर्भुज  के विकर्ण यदि लम्बवत हो तो उनके कटान बिन्दु से किसी भुजा पर डाला गया लम्ब सामने की भुजा को समद्विभाजित करता है   ।
ब्रह्मगुप्त ने श्लोक में कुछ इस प्रकार  अभिव्यक्त किया है –
त्रि-भ्जे भुजौ तु भुमिस् तद्-लम्बस् लम्बक-अधरम् खण्डम्  ।
ऊर्ध्वम् अवलम्ब-खण्डम् लम्बक-योग-अर्धम् अधर-ऊनम्    ।
ब्राह्यस्फुटसिद्धान्त, गणिताध्याय , क्षेत्रव्यवहार १२.३१

वर्ग –समीकरण का व्यापक सूत्र
ब्रह्मगुप्त का सूत्र इस प्रकार है –
वर्गचतुर्गुणितानां  रुपाणां मध्यवर्गसहितानाम्  ।
मूलं मध्येनोनं वर्गद्विगुणोद्धृतं  मध्यः   ।
ब्राह्मस्फुट-सिद्धान्त -१८.४४
अर्थात् ;-
  व्यक्त रुप (c) के साथ अव्यक्त वर्ग के चतुर्गुणित गुणांक ( 4ac)को अव्यक्त मध्य के गुणांक के वर्ग  (b2 ) से सहित करे या जोड़े  । इसका वर्गमूल प्राप्त करें या इसमें से मध्य अर्थात  b को घटावें  । पुनः इस संस्खा को अज्ञात ण वर्ग के गुणांक ( a) के द्विगुणित संस्खा से भाग देवें  । प्राप्त संस्खा ही अज्ञात ण का मान है ।
श्रीधराचार्य ने इस बहुमूल्य सूत्र को भास्कराचार्य का नाम लेकर अविकल रुप से उद्धृत किया –चतुराहतवर्गसमैः रुपैः पक्षद्वयं  गुणयेत् ।
अव्यक्तवर्गरुपैर्युक्तौ पक्षौ ततो मूलम् ।
       भास्करीय बीजगणित ,अव्यक्त वर्गादि –समीकरण  पृ. २२१
अर्थात् ;-    प्रथम अव्यक्त वर्ग के चतुर्गुणित रुप या गुणांक  ( 4a) से दोनों पक्षों के गुणांको को गुणित करके द्वितीय अव्यक्त गुणांक ( b) के वर्गतुल्य रुप दोनों पक्षों में जोड़े  । पुनः द्वितीय पक्ष का वर्गमूल प्राप्त करें ।

                                                आर्यभट्ट की ज्या (sine)  सारणी
आर्यभटीय का निम्नलिखित श्लोक ही आर्यभट्ट की ज्या सारणी को निरुपित करता है –
           मखि भखि फखि धखि णखि अखि डखि हरड़ा स्ककि किष्ग श्घकि किध्व ।
           ध्लकि किग्र हक्य धकि किच स्ग झश ड़्व क्ल प्त फ छ कला –अर्ध –ज्यास्  ।

                                                माधव की ज्या सारणी
निम्नांकित श्लोक में माधव की ज्या सारणी दिखाई गई है  । जो चन्द्रकान्त राजू द्वारा लिखित
‘कल्चरल फाउण्डेशन्स आँफ मेथेमेटिक्स ‘ नामक पुस्तक से लिया गया है ।
   श्रेष्ठं नाम वरिष्ठाणां  हिमाद्रिर्वेदभावनः  ।
  तपनो भानूसूक्तज्ञो मध्यमं विद्धि  दोहनं  ।
  धिगाज्यो नाशनं कष्टं  छत्रभोगाशयाम्बिका  ।
  धिगाहारो  नरेशो अयं वीरोरनजयोत्सुकः  ।
   मूलं विशुद्धं नालस्य गानेषु विरला नरा ः  ।
   अशुद्धिगुप्ताचोरश्री;  शंकुकर्णो  नगेश्वरः  ।
   तनुजो गर्भजो मित्रं श्रीमानत्र सुखी सखे;  ।
  शशी रात्रौ हिमाहारो वेगल्पः पथि  सिन्धुरः  ।
  छायालयो गजो नीलो निर्मलो नास्ति सत्कुले ।
 रात्रौ दर्पणमभ्राड्गं  नागस्तुड़्गनखो बली ।
 धीरो युवा कथालोलः पूज्यो नारीजरर्भगः  ।
कन्यागारे नागवल्ली देवो विश्वस्थली भृगुः  ।
 ततपरादिकलान्तास्तु  महाज्या माधवोदिता ; ।
   स्वस्वपूर्वविशुद्धे  तु शिष्टास्तत्खण्डमौर्विकाः  । २. ९. ५

                     ग्रहो की स्थिति काल एवं गति
महर्षि लगध ने ऋग्वेद एवं यजुर्वेद की ऋचाओं से वेदांग ज्योतिष संग्रहित किया ।वेदांग ज्योतिष में ग्रहों की स्थिति , काल एवं गति की गणना के सूत्र दिये गये है ।
तिथि मे का दशाम्य स्ताम् पर्वमांश समन्विताम्  ।
विभज्य भज समुहेन तिथि नक्षत्रमादिशेत      ।
      अर्थात् तिथि को ११ से गुणा कर उसमें पर्व के अंश जोड़ें और फिर नक्षत्र संख्या से भाग दे  । इस प्रकार तिथि के नक्षत्र बतावें  । नेपाल में इसी ग्रन्थ के आधार में विगत ६साल से ‘’वैदिक तिथिपत्रम् ‘’व्यवहार में लाया गया है ।

                                                पृथ्वी का गोल आकार
निम्नलिखित में पृथ्वी को ‘कपित्थ फल की तरह’ (गोल) बताया गया है  और इसे पंचभूतात्मक   कहा गया है ।
   मृदम्ब्वग्न्यनिलाकाशपिण्डो अयं पाण्चभौतिकः   ।
  कपित्थफलवद्वृत्तः  सर्वकेन्द्रेखिलाश्रयः    ।
    स्थिरः परेशशक्त्येव  सर्वगोलादधः  स्थितः   ।
   मध्ये समान्तादण्डस्य भुगोलो  व्योम्नि तिष्ठति  ।

                                                प्रकाश का वेग
सायणाचार्य ने प्रकाश कावेग निम्नलिखित श्लोक में प्रतिपादित किया है –
योजनानं सहस्त्रे द्वे द्वे शते द्वे च  योजने  ।
एकेन निमिषार्धेन क्रममाण  नमो अस्तुते ।
     इसकी व्याख्या करने पर प्रकाश का वेग ६४००० कोस १८५०० (मील) इति उक्तम् अस्ति । प्रकाश के वेग का आधुनिक मान  १८६२०२.३९६०  मील/्सेकण्ड है  ।

                                                संख्या रेखा की परिकल्पना   (काँन्सेप्ट्)
In brhadaranyaka Aankarabhasya  (4.4.25)srisankara has developed  the concept of number line in his own words .  
   एकप्रभृत्यापरार्धसंख्यास्वरुपपरिज्ञानाय   रेखाध्यारोपणं कृत्वा एकेयं  रेखा दशेयं , शतेयं , सहस्त्रेयं इति ग्राहयति , अवगमयति , संख्यास्वरुप , केवलं , न तु संख्यायाः रेखा तत्वमेव  ।
जिसका अर्थ यह है –
 1 unit, 10 units, 100 units, 1000 units stc. Up to parardha can be located  in a number line . Now by using the number line one can do operations  like addition , subtraction and so on . 
           ये तो कुछ नमुने है – जो यह दर्शाने के लिये दिये गये है कि  संस्कृत ग्रंथों में केवल  पूजा पाठ या आरती के मंत्र नही है  - बल्कि श्लोक लौकिक  सिद्धान्तों के भी है … और वो भी एक पूर्ण वैज्ञानिक भाषा या लिपि  में जिसे मानव एक बार सीख गया तो  बार बार वर्तनी याद करने या रटने के झंझट से मुक्त हो जाता है ।

       दुर्भाग्य से १००० साल की गुलामी में संस्कृत का ह्रास होने के कारण हमारे पुर्वजों के ज्ञान का भावी पीढ़ी द्वारा विस्तार नही हो पाया  और बहुत से ग्रन्थ आक्रान्ताओं द्वारा नष्ट भ्रष्ट कर दिये गये  । और स्वतंत्रता के बाद  हमारी सरकारो ने तो ऐसे वातावरण  बना दिये गये कि  संस्कृत का कोई श्लोक पूजा का मंत्र ही लगता है ।

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